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________________ 3000206996068.30 CO08200000 30.94 2500000.DOG २८८ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । निबन्धों में अनुभूति की प्रधानता है। विचारात्मक निबन्धों में आपने । “अहिंसा और अनेकान्त जैन दर्शन के प्राणभूत तत्त्व हैं। हमारे विवेचनात्मक एवं गवेषणात्मक दोनों प्रकार के निबन्ध लिखे हैं। शरीर में जो स्थान मन और मस्तिष्क का है, वही स्थान जैन दर्शन आपके निबन्धों में कल्पना, अनुभूति और तर्कपूर्ण मधुर व्यंग भी { में अहिंसा और अनेकान्त का है। अहिंसा आचार-प्रधान है और है। निबन्धों की शैली सरस, सरल और हृदय के विराट् भावों को अनेकान्त विचार-प्रधान है। अहिंसा व्यावहारिक है, उसमें प्राणिमात्र अभिव्यक्त करने में सक्षम है। समय-समय पर आपश्री के निबन्ध के लिए दया, करुणा, मैत्री व आत्मौपम्य की निर्मल भावना पत्र-पत्रिकाओं में तथा विभिन्न ग्रन्थों में प्रकाशित हुए हैं और कितने | अंगड़ाइयाँ लेती है तो अनेकान्त बौद्धिक अहिंसा है। उसमें विचारों ही निबन्धों की पुस्तकें अभी अप्रकाशित हैं। आपश्री के कुछ की विषमता. मनोमालिन्य दार्शनिक विचारभेट और उसमे उत्पन निबन्धों के उद्धरण यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं। होने वाला संघर्ष नष्ट हो जाता है। सह-अस्तित्व, सद्व्यवहार के पुद्गल द्रव्य पर चिन्तन करते हुए आपश्री ने लिखा है- विमल विचारों के फूल महकने लगते हैं। "न्याय-वैशेषिक' जिसे भौतिक तत्त्व कहते हैं, विज्ञान जिसे आज विश्व में सर्वत्र अशान्ति दृष्टिगोचर हो रही है। विश्व में 'मैटर' रहता है, उसे ही जैनदर्शन ने पुद्गल कहा है। बौद्ध साहित्य अशान्ति का मूल कारण क्या है? इस पर विचार करते हुए में 'पुद्गल' शब्द "आलय विज्ञान", "चेतना संतति" के अर्थ में | आपश्री ने अपने "स्याद्वाद और सापेक्षवाद : एक अनुचिन्तन" व्यवहृत हुआ है। भगवती सूत्र में अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा नामक निबन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा हैSOD को पुद्गल कहा है। किन्तु मुख्य रूप से जैन साहित्य में 'पुद्गल' "आज का जन-जीवन संघर्ष से आक्रान्त है। चारों ओर द्वेष का अर्थ 'मूर्तिक द्रव्य' है, जो अजीव है। अजीव द्रव्यों में पुद्गल और द्वन्द का दावानल सुलग रहा है। मानव अपने ही विचारों के द्रव्य विलक्षण है। वह रूपी है, मूर्त है, उसमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण कटघरे में आबद्ध है। आलोचना और प्रत्यालोचना का दुष्चक्र तेजी SDOES पाए जाते हैं। पुद्गल में सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु से लेकर बड़े से बड़े । से चल रहा है। मानव एकान्त पक्ष का आग्रही होकर अन्धविश्वासों व पृथ्वी स्कन्ध तक में मूर्त गुण पाये जाते हैं। इन चारों गुणों में से के चुंगल में फँस रहा है। क्षुद्र व संकुचित मनोवृत्ति का शिकार R s किसी में एक, किसी में दो और किसी में तीन गुण हों, ऐसा नहीं होकर एक-दूसरे पर छींटाकशी कर रहा है। वह अपने विचारों को 55006 हो सकता। चारों ही गुण एक साथ रहते हैं। यह सत्य है कि किसी । सत्य और दूसरे के विचारों को असत्य सिद्ध करने में लगा हुआ है। में एक ही गुण की प्रमुखता होती है, जिससे वह इन्द्रिय अगोचर हो | "सच्चा सो मेरा" इस सिद्धान्त को विस्मृत करके "मेरा सो जाता है, और इसके गुण गौण होते हैं, जो इन्द्रियगोचर नहीं हो | सच्चा" इस सिद्धान्त की घोषणा कर रहा है। परिणामतः इस पाते हैं। इन्द्रियगोचर होने से हम किसी गुण का अभाव नहीं मान संकीर्ण वृत्ति से मानव-समाज में अशान्ति की लहर लहराने लगी है। सकते। आज का वैज्ञानिक हाइड्रोजन और नाइट्रोजन को वर्ण, गन्ध इतना ही नहीं, जब मानव में संकीर्ण वृत्ति से उत्पन्न हुआ अहंकार, और रसहीन मानते हैं। यह कथन गौणता को लेकर है। दूसरी दृष्टि आग्रह तथा असहिष्णुता का चरमोत्कर्ष होता है, तो धार्मिक व से इन गुणों को सिद्ध कर सकते हैं। जैसे 'अमोनिया' में एकांश सामाजिक क्षेत्र में भी रक्त की नदियाँ बहने लगती हैं। इस हाइड्रोजन और तीन अंश नाइट्रोजन रहता है। अमोनिया में रस परिस्थिति के निवारण के लिए ही जैन दर्शन ने विश्व को और गन्ध ये दो गुण होते हैं। इन दोनों की नवीन उत्पत्ति नहीं । अनेकान्तवाद की दिव्य दृष्टि प्रदान की है। मानते, चूंकि यह सिद्ध है कि असत् की कभी भी उत्पत्ति नहीं हो । का कभी नाणा नहीं हो सकता। इसलिए जो गण दान जैसे महत्वपूर्ण विषय पर गुरुदेवश्री ने एक विराट्काय अणु में होता है, वही स्कन्ध में आता है। हाइड्रोजन और नाइट्रोजन ग्रन्थ का निर्माण किया है। दान की व्याख्या करते हुए आपश्री ने के अंश से अमोनिया निर्मित हुआ है, इसलिए रस और गन्ध जो लिखा हैअमोनिया के गुण हैं, वे गुण उस अंश में अवश्य ही होने ही "दान दो अक्षरों से बना हुआ एक चमत्कारी शब्द है। आप चाहिए। जो प्रच्छन्न गुण थे, वे उनमें प्रगट हुए हैं। पुद्गल में चारों दान शब्द सुनकर चौंकिए नहीं। दान से यह मत समझिए कि गुण रहते हैं, चाहे वे प्रकट हों या अप्रकट हों। पुद्गल तीनों कालों । आपकी अपनी कोई वस्तु छीन ली जायेगी या आपको कोई वस्तु में रहता है, अतः सत् है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है। जो अपने जबरन दी जायेगी। दान एक धर्म है और धर्म कभी किसी से सत् स्वभाव का परित्याग नहीं करता, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त जबरन नहीं करवाया जाता। हाँ, उसके पालन करने से लाभ और है, और गुण पर्याय सहित है, वह द्रव्य है। द्रव्य के बिना उत्पाद | न करने से हानि के विविध पहलू अवश्य ही समझाए जाते हैं। इसी नहीं होता, उत्पाद और व्यय के बिना ध्रौव्य नहीं हो सकता। द्रव्य प्रकार दान कोई सरकारी टैक्स नहीं है, कोई आयकर, विक्रयकर का एक पर्याय उत्पन्न होता है, दूसरा नष्ट होता है, पर द्रव्य न या सम्पत्तिकर नहीं है। जो जबरन किसी से लिया जाय अथवा उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है। किन्तु सदा ध्रौव्य रहता है......" दण्डशक्ति के जोर से उसका पालन कराया जाए। चूँकि दान धर्म है, अहिंसा और अनेकान्त का विश्लेषण करते हुए आपश्री ने / अथवा पुण्य कार्य है, इसलिए वह स्वेच्छा से ही किया जा स्पष्ट लिखा है सकता है।" 0000000 2960658000 |Jhingdocadiasinternational pOTP0051803 SUBorivate a Personal use only O D DOCOUND www.jalnelibrary.org.
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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