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________________ 300. 000000 600%% २९० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सफाइयाँ हो रही हैं जितनी, सम्यग्दर्शन मोक्ष का साधन रूप है। इसीलिए यहाँ पर दर्शन दिल उतने ही हो रहे हैं मैले । का अर्थ दृष्टि और निश्चय है। दृष्टि भ्रान्त भी हो सकती है और अँधेरा छा जायगा जहाँ में, निश्चय मिथ्या हो सकता है। अतः दर्शन के पूर्व ‘सम्यग्' शब्द व्यवहृत हुआ है। जिसका अर्थ है-ऐसी दृष्टि जिसमें किसी प्रकार अगर यही रोशनी रहेगी ॥ की भ्रान्ति नहीं है, और अयथार्थ भी नहीं है। ऐसा निश्चय, जो भौतिकवाद की इस विकट बेला में मानव को यह चिन्तन पूर्णतया वास्तविकता को लिए हुए है। करना है कि शान्ति और आनन्द कहाँ है? यह भौतिकवादी भावना सम्यग्दर्शन जीवन की दिव्य दृष्टि है। आचार्य उमास्वाति ने स्वार्थवृत्ति को पनपा सकती है, शोषण और पाशविक प्रवृत्तियाँ बढ़ा DO और आचार्य अभयदेव ने सम्यग्दर्शन का अर्थ 'श्रद्धा' किया है। सकती है, पर उसे शान्ति और आनन्द प्रदान नहीं कर सकती। नियमसार की तात्पर्य वृत्ति में लिखा है कि शुद्ध जीवास्तिकाय से 2059004 विवेक और संयम को उबुद्ध नहीं कर सकती। भारत के मूर्धन्य उत्पन्न होने वाला जो परम श्रद्धान है, वही दर्शन है। जहाँ पर तत्त्व मनीषियों ने गहराई से इस तथ्य को समझा और उन्होंने स्पष्ट या किसी पदार्थ का निश्चय, श्रद्धान, विवेक या रुचि आत्मलक्षी शब्दों में यह उद्घोषणा की-मानव का भौतिकवाद की ओर जो । हो, वहीं सम्यग्दर्शन होता है। अभियान चल रहा है, वह आरोहण की ओर नहीं, अवरोहण की ओर है। वह मानव को उत्थान के शिखर की ओर नहीं, पर पतन दर्शन के पहले सम्यग् विशेषण लगाने का यही उद्देश्य है कि की गहरी खाई की ओर ले जा रहा है। जब तक मानव भौतिकवाद देखना सम्यग् हो। जब दर्शन के पूर्व सम्यग शब्द लग जाता है तो में भटकता रहेगा तब तक सच्चे सुख के संदर्शन नहीं हो सकते। वह दर्शन आध्यात्मिक बन जाता है। मिथ्यात्व की स्थिति में दर्शन सुख-शान्ति और सन्तोष को प्राप्त करने के लिए अपने अन्दर ही परलक्षी होता है। आचार्य पूज्यपाद का मन्तव्य है कि पदार्थों के अवगाहन करना पड़ेगा। जैसे कस्तूरिया मृग अपनी नाभि में कस्तूरी यथार्थ प्रतिपत्तिविषयक श्रद्धान का संग्रह करने के लिए ही दर्शन होने पर भी उसकी मधुर सौरभ के लिए वन-वन भटकता है, वही के पहले सम्यग् विशेषण दिया है। व्याकरण की दृष्टि से 'सम्यग्' स्थिति आज मानव की है। वह बाहर भटक रहा है किन्तु अपने के मुख्य तीन अर्थ हैं-प्रशस्त, संगत और शुद्ध। प्रशस्त विश्वास ही अन्दर नहीं झाँक रहा है। अपने अन्दर झाँकना, आत्मावलोकन सम्यग्दर्शन है। प्रशस्त का एक अर्थ मोक्ष भी है। अतः मोक्षलक्षी करना, शुद्ध आत्मा का अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन है। पुरुषार्थ दर्शन सम्यग्दर्शन है।" सिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है- ऊपर दिए गए कतिपय उदाहरण हैं-गुरुदेव श्री के समर्थ, 'आत्मदर्शन सम्यग्दर्शन है, आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान है और आत्म- गंभीर, चिन्तन, सुधा में सराबोर श्रेष्ठ गद्य-साहित्य के। ऐसे सरस86 स्थिरता सम्यक्चारित्र है।' गंभीर गद्य को पढ़ते हुए पाठक का आनन्दनिमग्न होकर स्वयं को आध्यात्मिक साधना में इन तीनों का गौरवपूर्ण स्थान है और एक उच्च धरातल पर अनुभव करना सहज और स्वाभाविक है। यही मोक्ष है। संस्मरण-साहित्य सम्यग्दर्शन शब्द 'सम्यग्' और 'दर्शन' इन दो शब्दों से निर्मित है। दोनों शब्द गंभीर अर्थ गौरव को लिए हुए हैं। हम यहाँ प्रथम संस्मरण-लेखन सदैव लेखक के हृदय में एक आह्लादकारी भाव दर्शन शब्द को समझ लें तो सहज में सम्यग्दर्शन का हार्द समझ में जगाने वाला होता है तथा पाठकों के लिए भी उसमें कुछ विशेष ही आकर्षण समाया रहता है। आ सकता है। यह साहित्य की एक सशक्त विधा है। अन्यान्य विधाओं से यह तत्त्वचिन्तन की एक विशिष्ट धारा दर्शन के नाम से जानी अधिक रुचिकर और प्रिय होती है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में और पहचानी जाती है। जैसे-सांख्यदर्शन, बौद्धदर्शन, जैनदर्शन नित्य नई, भिन्न-भिन्न प्रभावों वाली घटनाएँ घटित होती रहती हैं। आदि। यहाँ पर दर्शन शब्द प्रस्तुत अर्थ में व्यवहृत नहीं हुआ है।। कुछ घटनाएँ चलचित्र की तरह आती हैं और चली जाती हैं-जैसे जैन आगम साहित्य में निराकार उपयोग या सामान्य ज्ञान के लिए। कहीं कोई जुगनू चमका, और गायब। 20दर्शन शब्द आया है। वस्तु की सत्ता मात्र का अवलोकन करना अथवा कहीं कोई बिजली तड़पी-और फिर नदारद! दर्शन है। वह अर्थ भी यहाँ अभीष्ट नहीं है। जिसके द्वारा देखा जाय या जिसे देखा जाय, वह दर्शन है। केवल आँखों से देखना भी किन्तु कुछ घटनाओं की छाप अमिट हो जाती है। वे भुलाने यहाँ अभीष्ट नहीं है। अनेकार्थ संग्रह में दर्शन के अर्थ में दर्पण, पर भी भुलाई नहीं जा सकतीं। स्मृति के आकाश में वे बार-बार दि. शास्त्र. स्वप्न लोचन कर्म देश आदि विविध बिजली की तरह कौंधती ही चली जाती हैं। पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यहाँ पर दर्शन का अर्थ केवल नेत्रों मधुर भी होते हैं संस्मरण । से निहारना ही नहीं है, किन्तु अन्तर्दर्शन है। तीक्ष्ण भी । कड़वे भी। PalmiBdotation internationaloo066066000000000000moreolyate SPersonal use only- D 6 S GROWONGSvww.jaineliterary.org SATOP606 0090000000000010530 O0-00-00-00000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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