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________________ वाग देवता का दिव्य रूप अरिस्टोटल ने 'दि आर्ट ऑफ पोयट्री' में, हेगेल ने 'फिलासफी ऑफ फाइन आर्ट्स' में महाकाव्य के लक्षणों का विस्तार से विवेचन किया है। उन सभी के आधार पर महाकाव्य के मुख्य तत्व चार हैं- महान् कथानक, महान् चरित्र, महान् सन्देश और महान् शैली। महाकाव्य वह सांगोपांग छन्दोबद्ध कथात्मक काव्यरूप है, जिसमें कथाप्रवाह, अलंकृत वर्णन तथा मनोवैज्ञानिक चित्रण से युक्त ऐसा सुनियोजित सांगोपांग और जीवन्त कथानक होता है, जो रसात्मकता या प्रभान्विति उत्पन्न करने में पूर्ण सक्षम है। महान् प्रेरणा और महान् उपदेश भी प्रस्तुत काव्य में प्रतीकात्मक या अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है। जबकि प्रस्तुत काव्य में काव्य संबंधी रूढ़ियों की जकड़ नहीं है, इसमें कवि ने अपनी स्वाभाविक प्रतिभा का ही प्रयोग किया है। फलतः इसमें स्वाभाविकता और कलात्मकता दोनों एक साथ परिलक्षित होती हैं। इसमें भाषा की जटिलता नहीं, किन्तु सरसता है और अर्थ गंभीरता है जो पाठकों के मन को मोह लेती है। काव्य मर्मज्ञों ने काव्य के अनेक गुण बताए हैं। आचार्य भामह ने काव्यालंकार में माधुर्य, प्रसाद और ओज-ये तीन मुख्य गुण बताए हैं। माधुर्य और प्रसाद गुण वाली रचना में समासान्त पदों का प्रयोग प्रायः नहीं होता, तो ओज गुणवाली रचना में समास बहुल पद प्रयुक्त होते हैं। आपश्री के प्रस्तुत काव्य में प्रसाद और माधुर्य इन दो गुणों की प्रधानता है। कहीं-कहीं पर ओज गुण भी परिलक्षित होता है। आपश्री ने तीर्थंकरों की स्तुति के रूप में अष्टक, एकादशक, दशक आदि विविध रूप में अनेक स्फुट रचनाएँ भी की हैं। जिनमें आपश्री के हृदय की विराट् भक्ति छलक रही है। इस स्तोत्र साहित्य को पढ़ते हुए सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य हेमचन्द्र और मानतुंग के स्तोत्र साहित्य का सहज स्मरण हो आता है। भगवान् ऋषभदेव जैन संस्कृति के ही नहीं, अपितु विश्व संस्कृति के आद्य पुरुष हैं। संस्कृति और सभ्यता के पुरस्कर्ता हैं। भाव-विभोर होकर उनकी स्तुति करता हुआ कवि कहता है आसीद् यदा जगति विप्लव एक बुद्धेः, जाती जनस्य कृषि कर्मणि वान्यकायें। त्राताऽयमेव विषमे, विषये तदाऽभूत्, तीर्थंकरं तमृषभं सततं नमेयम् ॥ -भगवान् शान्तिनाथ सोलहवे तीर्थंकर हैं। विश्व में शान्ति-संस्थापक हैं। उनके नाम में ही अद्भुत भक्ति है। जिससे सर्वत्र शान्ति की सुरलहरी झनझनाने लगती है। कवि का कथन हैसुशान्तिनाथस्य पदारविन्दयोः, नमस्त्रिकृत्वोऽपि पुनर्मुहुर्मुहुः । नमामि जन्मान्तरकर्मशान्तये, शिवाय भिक्षुस्तव पुष्करो मुनिः ॥ Jain Education International 6000 -भगवान् पार्श्व तेईसवें तीर्थंकर हैं। आधुनिक इतिहासकार भी जिनके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। इन भगवान् पार्श्वनाथ की महान् विशेषता का चित्रण करते हुए कवि कहता हैघृतोत्सर्गोद्रेकः प्रभुरपि विभावं न मनसा, स्पृशत्येवं किंचित् कथनीयं पुनरिदम् । भवेन्नाम्नाऽप्येतज् जगतियशसः स्यात्फलमदः, प्रभु पार्श्व वन्दे प्रयमिमतिभूत्यै प्रतिदिनम् ॥ महातपोभिः परितप्य विग्रहम्, प्रहाय कर्माणि शिवं शुभं पदम् । प्रसिद्ध संस्तार पथा प्रत्यात्पसी, पथः प्रणेतारमहं प्रभुं भजे ॥ २८७ विश्वज्योति श्रमण भगवान् महावीर का उग्र तप सभी तीर्थंकरों से बढ़कर था। उन्होंने उग्र तप की साधना से कर्मों को नष्ट कर दिया और शिवत्व को प्राप्त किया। ऐसे महान् वीर प्रभु की स्तुति कर कवि स्वयं को धन्य मानता हुआ कहता है इस प्रकार कवि का संस्कृत स्तोत्र साहित्य साधक के अन्तर्मानस में भक्ति की भागीरथी ही प्रवाहित कर देता है। निबन्ध-साहित्य संस्कृत में किसी विचारक मनीषी ने एक उक्ति कही है-"गय कवीनां निकर्ष वदन्ति" अर्थात् किसी कवि में अथवा साहित्यकार में वस्तुतः कितना सामर्थ्य अथवा साहित्य-सृजन हेतु भावों तथा अनुभवों एवं ज्ञान का कितना खजाना है, यह बात उसके द्वारा लिखे गए गद्य से प्रगट होती है। संक्षेप में, यदि कहा जाय तो यह कहा जा सकता है कि 'सच्चे कवि की कसौटी उसका गद्य ही है।' गुरुदेवश्री ने जितनी विपुल मात्रा में श्रेष्ठ पद्य लिखा है, उतना ही श्रेष्ठ गद्य भी विभिन्न विधाओं में भी लिखा है इन विधाओं में निबन्ध प्रमुख है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबन्ध में ही सबसे अधिक सम्भव है। अतः भाषा की दृष्टि से निबन्ध गद्य साहित्य का सबसे अधिक और विकसित रूप है सामान्य लेख में लेखक का व्यक्तित्व पूर्णरूपेण निखरता नहीं है। वह प्रच्छन्न रूप में रहता है। जबकि निबन्ध में लेखक का व्यक्तित्व पूर्णरूपेण निखर कर पाठकों के समक्ष आता है। अतः कहा जा सकता है कि निबन्ध गद्य-साहित्य की वह विधा है, जिसमें लेखक एक सीमित आकार में इस विविध रूप जगत के प्रति अपनी भावात्मक एवं विचारात्मक प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करता है। For Private & Personal Use Only मुख्य रूप से निबन्ध के दो भेद हैं-भावात्मक और विचारात्मक। आपश्री ने दोनों ही प्रकार के निबन्ध लिखे हैं। www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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