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________________ HDDDDDD 50. । तल से शिखर तक २७३ । पुरस्कर्ताओं ने ज्ञप्ति, भक्ति और शक्ति तीनों का मिलन “लाभालाभे सुहे-दुक्खे, जीविए मरणे तहा। अध्यात्मयोग के लिए अनिवार्य माना है, जो मोक्षपथ में पाथेय रूप समो जिंदा-पसंसासु तहा माणावमाणओ॥१ है। स्व. उपाध्यायश्री में ज्ञान का नद सतत् बहता रहता था। वे अर्थात् अध्यात्मयोगी लाभ हो या अलाभ (हानि), सुख हो या संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी आदि भाषाओं के दुःख, जीवन रहे या मृत्यु होने लगे तथा निद्रा हो या प्रशंसा, अधिकृत विद्वान थे। साथ ही वेद, गीता, उपनिषद् मनुस्मृति एवं सम्मान मिले या अपमान मिले, दो प्रकार की अवस्थाओं में सम आगमों की अगाध ज्ञाननिधि उनके मस्तिष्ककोष में संचित थी। वे रहे, वही समतायुक्त साधक अध्यात्मयोगी है। कवि भी थे, लेखक भी, साधक भी, भक्त भी, वक्ता भी, योगी भी । अध्यात्मयोगीश्री की अध्यात्मयात्रा कहाँ से और कैसे? एवं श्रमणसंघ के विशिष्टपदाधिकारी भी थे। अध्यात्मयोगी स्व. उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. की इसी प्रकार वे योगी, ध्यानी और जपनिष्ठ साधक भी थे, अध्यात्मयात्रा कहाँ से और कैसे प्रारंभ हुई? इस यात्रा में कहाँ-कहाँ तथैव आहार, विहार, धर्मप्रचार, साधु जीवन का आचार इत्यादि में उतार-चढ़ाव आए? सफलता-असफलता मिली? कैसे-कैसे उनकी सजग, अप्रमत्त एवं निष्ठावान् साधक थे। अध्यात्मयात्रा में अवरोध एवं विरोध आए? तूफानों में भी कैसे अध्यात्मयोगी स्वार्थी नहीं, आत्मार्थी और ज्ञाता-द्रष्टा अपनी संयमी जीवन नौका को सकुशल एवं सुरक्षित रूप से खेते कई लोगों का कहना है-अध्यात्मयोगी अपने आप ही सीमित हुए अध्यात्मयोग से संपन्न बने? संक्षेप में हम इसकी झांकी प्रस्तुत रहता है, स्व अर्थमग्न होता है, अपने धर्मसंघ, गण, राष्ट्र, समाज करते हैंआदि से उदासीन और अलग-थलग रहता है, परन्तु यह बात समुद्रयात्री नाविक सम अध्यात्मयोगी की अध्यात्म यात्रा पूर्णतः यथार्थ नहीं है। यह बात दूसरी है कि अध्यात्मसाधना के समुद्र यात्रा करने वालों को सदैव तूफान, आँधी आदि का भय प्रारंभिक काल में वह आध्यात्मिक साधना में परिवक्वता एवं निष्ठा बना रहता है। कोई समुद्र की यात्रा करे और तूफान का सामना न के लिए एकान्त में जनसम्पर्क से रहित, मौन, ध्यान, जप-तप, करना पड़े। यह असंभव है। किन्तु कुशल नाविक आँधी और स्वाध्याय, ग्रहण-आसेवन शिक्षा आदि में अधिक रत रहता हो तूफान के वातावरण में भी अपनी नौका को सावधानीपूर्वक परन्तु उसका आध्यात्मिक योग सही माने में तभी चरितार्थ एवं जागरूक रहकर खेता है और उसे पार पहुंचाता है। उसी प्रकार सार्थक होता है, जब संघ गण राष्ट्र, समाज आदि घटकों के साथ । संसार-समुद्र में अध्यात्मयात्रा करने वाले अध्यात्मयोगी का भी वह मन-वचन-काया से साथ रहता हुआ भी, अपने कर्तव्यों और संसार-समुद्र में डूबने तथा उफान और तूफान का खतरा रहता है, दायित्वों का पालन करता हुआ भी निर्लिप्त रहे, तटस्थ रहे, उस समय अध्यात्मयोगी भी संसार-समुद्र में अध्यात्मयात्रा करता ज्ञाता-द्रष्टा रहे, वीतरागता का अभ्यास करे। इसलिए अध्यात्मयोगी हुआ सतत् जागरूक, यतनाचार- रत एवं ज्ञाताद्रष्टा रहकर जीवन अन्तरात्मा में गहरी डुबकी लगाता हुआ भी बाहर से संघ, गण, नौका खेता है और स्वयं को और साथ ही संघ, राष्ट्र समाज आदि राष्ट्र, ग्राम, नगर, व्यक्ति समाज, समष्टि आदि घटकों के साथ को समुद्र पार पहुंचा देता है। अध्यात्मयोगी उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि सम्पर्क रखता हुआ भी जागरूक रहता है। अध्यात्मयोगी का जीवन जी म. भी अपनी अध्यात्मयात्रा में अनेक विघ्नों, कष्टों, उपसर्गों, वटवृक्ष की तरह होता है। जैसे वटवृक्ष बाहर में जितना विशाल उपद्रवों एवं संकटों का सामना करते हुए जागरूक रहकर आगे और व्यापक दिखता है, उतना ही भीतर (जड़) में गहरा होता है। बढ़े हैं। उपाध्यायश्री का बाहर में जितना व्यापक परिचय जनता से, अध्यात्मयोगी विराट् बनने का संकेत : स्वप्नदृष्टा विशिष्ट व्यक्तियों से, संघ, राष्ट्र आदि से सम्पर्कयुक्त होता है, उपाध्यायप्रवर स्व. श्री पुष्कर मुनि जी के अध्यात्मयोगी होने उतनी ही उनकी अध्यात्मयोग की जड़ें गहरी, ठोस एवं दूर-दूर तक का संकेत उनके शैशवकाल से पूर्व गर्भ में आने पर उनकी फैली हुई होती हैं। मातेश्वरी वालीबाई को फलों के राजा आम्रफल के स्वप्न के रूप में अध्यात्मयोगी का स्थितप्रज्ञ से मिलता-जुलता लक्षण हुआ। इस स्वप्न का फलादेश अपने जीवन के तेजस्वी, यशः सौरभ से व्याप्त और योगिराज बनने का सभी को परिलक्षित होता था। अध्यात्मयोगी का अन्तरंग लक्षण भगवद्गीता में उक्त स्थितप्रज्ञ इसी स्वप्न के अनुरूप बालक का नाम अम्बालाल रखा गया। प्रकृति के लक्षण से मिलता-जुलता है। जैन आगमों में उसे स्थितात्मा के बालक अम्बालाल को अध्यात्म यात्रा प्रारंभ कराने के बहाने (ठियप्पा) कहा गया है। उपाध्यायश्री जी के उदात्त ज्ञान-दर्शन जन्मग्राम से माता के द्वारा नान्देशमा ग्राम में पहुँचा दिया, जहाँ चारित्र-तप से युक्त जीवन इस तथ्य का साक्षी है। जैनों की मुख्य आबादी थी तथा जैन श्रमण या श्रमणियाँ पधारते, अध्यात्मयोगी का विशिष्ट लक्षण जैन आगम के अनुसार यों है १. उत्तराध्ययन सूत्र अ. १९, गाथा. ९० काल रात DODHANDG0000 tan Education international -889028 8 8 r ivate sRelgogatge only6908050htae %96Amelesed 231200.00DSOOODele 228666003
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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