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________________ 20.0000000000 6000000000000 FORSE0200.0 00 - 0 -00-0 0000 } २७४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आपकी माताजी आपको साथ में लेकर उनके दर्शन और प्रवचन तुम्हें वहाँ ले जाने की व्यवस्था जो जाएगी। किन्तु अध्यात्म यात्रा के | श्रवण के लिए ले जाती थी। साधु-साध्वियों के आध्यात्मिक जीवन | पथिक अम्बालाल ने कहा-मैं मारवाड़ तो नहीं जाऊँगा, किन्तु वे | के संस्कार बीज रूप में बालक अम्बालाल में भी पड़ते गए। यदि यहाँ पधारेंगे तो मैं अवश्य ही उनका शिष्य बन जाऊँगा। अध्यात्मयात्रा का श्रीगणेश : वैराग्य पाथेय के रूप में अध्यात्म यात्रा के आग्नेय पथ पर। दुर्भाग्य से आध्यात्मिक संस्कारों का बीजारोपण करने में साध्वी जी की सूचना पाकर महामुनि श्री ताराचंद्र जी म. निमित्त वात्सल्यमयी माता का देखते ही देखते आकस्मिक देहान्त हो विचरण करते-करते परावली पधारे। महाराजश्री के दर्शन करके गया। नौ वर्ष के बालक अम्बालाल के मन में अकस्मात् मातृवियोग एवं प्रवचन सुनकर अम्बालाल अतीव प्रफुल्लित हुआ। महाराजश्री के कारण मृत्यु पर चिन्ता का स्तोत्र फूट पड़ा। यही से उनके ने भृगु पुरोहित के दोनों पुत्रों के वैराग्य एवं समय पथ पर आरूढ़ चिन्तनशील मस्तिष्क में अध्यात्मयात्रा का श्रीगणेश वैराग्य पाथेय होने की कहानी बहुत ही ओजस्वी ढंग से सुनाई। उसे सुनकर के रूप में साथ हुआ। विरक्ति से ओत-प्रोत बालक अम्बालाल अध्यात्म-यात्री बनने के अध्यात्मयात्रा में सहायक सेठ अम्बालालजी के साथ परावली में लिए मचल उठा। गुरुदेव ताराचंद्र जी म. ने बालक के मन, बुद्धि और हृदय को टटोल, उसके जीवन के संबंध में कुछ लोगों से 5 मानो इसी अध्यात्मयात्रा में सहायक बनने हेतु एक दिन । पूछा। गुरुदेव की पारखी दृष्टि ने इस विशिष्ट मानवरल को परावली ग्रामवासी सेठ अम्बालालजी ओरड़िया आए। सेठ पहचान लिया। गुरुदेव ने साधु जीवन की कठिनाइयाँ, विहारयात्रा, अम्बालालजी के कोई सन्तान नहीं थी। बालक अम्बालाल की चर्या, त्याग, तप, संयम आदि के कष्टमय जीवन की गाथाएँ वैराग्यवासित शान्त चर्या देखकर वे प्रभावित हुए और वात्सल्यवश सुनाई। परन्तु उसे सुनकर तो बालक अम्बालाल का मन और दृढ़ | अपने साथ उसे परावली ले गए। वहाँ बालक अम्बालाल का हो गया। अध्यात्मयात्रा के पथ पर चलने के लिए। लालन-पालन होने लगा। किन्तु संसार में स्वार्थ न होता तो यह स्वर्ग बन जाता। जब सेठ अम्बालालजी के चिर प्रतीक्षा के पश्चात् एक नान्देशमा के श्रावकों के समझाने पर पिता सूरजमल जी ने पुत्र हो गया तो बालक अम्बालाल के प्रति वात्सल्य का स्थान स्वार्थ दीक्षा की सहर्ष अनुमति दे दी। साधु जीवन के लिए प्राथमिक और अपेक्षा ने ले लिया। सेठ ने उसे पशुओं को जंगल में चरा आचार-शास्त्र, प्रतिक्रमण, तत्वज्ञान एवं अध्यात्म ग्रन्थों का डटकर लाने का कार्य सौंपा। परन्तु बालक अम्बालाल वैराग्य के भजन अध्ययन वैराग्य संपन्न अम्बालाल करने लगा। जालोर के गुरुभक्त गाता, बांसुरी बजाता और आनन्द से पशुओं के बछड़ों के साथ श्रावकों की आग्रहपूर्ण विनती मानकर जालोर में आपकी भागवती क्रीड़ा करता। एक दिन जंगल में क्रीड़ा करते हुए अचानक पैर में दीक्षा सम्पन्न की। आध्यात्मिक यात्री के रूप में आपका गुणनिष्पन्न पत्थर की चोट लग गई। सारा पैर का पंजा लहुलुहान हो गया। नाम रखा गया-पुष्कर मुनि। असह्य पीड़ा हो गई। पर उस जंगल में सिवाय पशु के उसकी अध्यात्मयात्रा में ज्ञान की गहनता पुकार कौन सुनता। शाम को देर से घर पहुंचा तो सेठ ने बहुत अध्यात्म यात्रा के लिए परिवक्व ज्ञान अनिवार्य है। उसके आड़े हाथों लिया, बहुत डांटा। न तो उसकी पीड़ा के प्रति बिना यह यात्रा निर्विघ्न नहीं हो पाती। व्यक्ति अन्धविश्वास, अधैर्य सहानुभूति और न ही मरहम पट्टी। सेठ का यह रूखा व्यवहार और तथा किंकर्तव्यमूढ़ता की राह पर चल पड़ता है। अतः आपने ऊपर से तीव्र ज्वर एवं दर्द की हालत में भी पशुओं को चरा लाने अध्यात्मयात्रा में सुदृढ़ता, परिवक्वता एवं विकासशीलता के लिए का आदेश। आगमों, दर्शन-शास्त्रों, भाषाओं तथा अध्यात्म ग्रन्थों का रुचि और अध्यात्म यात्रा में आगे बढ़ने के मार्ग की खोज में उत्साहपूर्वक गंभीर अध्ययन किया। इतना ही नहीं, आपने कई फिर भी बालक अम्बालाल ने धैर्य नहीं खोया, अपने जीवन साधु-साध्वियों को इन विषयों का अध्ययन कराया। को अध्यात्मयात्रा के मार्ग में आगे बढ़ाने का विचार किया। जहाँ अध्यात्मयोगी पुष्करमुनि में निरहंकारता-नम्रता चाह होती है, वहाँ राह मिल जाती है। बालक अम्बालाल ने सेठजी मा अध्यात्मयोगी के जीवन में ज्ञान होने पर उसका अहंकार नहीं का उपेक्षापूर्ण रवैया देख अपना नया मार्ग खोजना शुरू किया। एक होता, बल्कि नम्रता, समता, तितिक्षा, धीरता आदि गुणों में वृद्धि दिन गाँव में पधारी हुई साध्वी प्रमुखा महासती श्री धूलकुंवर जी से होती है। अध्यात्मयोगी पुष्करमनि जी में विद्वता और ज्ञानवृद्धि के वंदना करके सविनय पूछा-महासती जी, वे महाराज कहाँ हैं ? जो । साथ-साथ नम्रता, जिज्ञासा, गुणग्राहकता आदि गुणों की भी वृद्धि चार साल पहले यहाँ आए थे? मुझे उन्होंने अपने पास प्रेम से होती गई। आपको पोका सापटाय जाति कौम वर्ग और वर्ण बिठाकर आत्म-विकास की सुन्दर कथाएँ भी सुनाई थीं। मैं उनका के गुण व्यक्तियों से समभावपूर्वक मिलन और प्रेमपूर्वक धर्म चर्चा शिष्य बनना चाहता हूँ। करने में आनन्द आता था। गुजरात के गजपंथा तीर्थ में विराजित साध्वी जी ने बालक की जिज्ञासा देखकर कहा-वे इस समय दिगम्बराचार्य श्री शांतिसागर जी के साथ आप एक ही धर्मशाला में मारवाड़ में हैं। यदि तुम्हारी इच्छा उनके दर्शन करने की हो तो ठहरे, मिले, अनेक विषयों पर धर्म चर्चा की। आपकी उदारता एवं Proosप्रलयकाएक 2000.000000000000202 Main Education internationaisso24060030D For ervate & Personal Use Only www.ainelibrary.org SO902 PARO 36.
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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