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________________ 769009996064 | | २७२ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । अध्यात्मयोगी की अध्यात्म यात्रा-स्मृतियाँ 2. 00 399 950650 -पं. मुनि श्री नेमीचंद जी म. (अहमदनगर) अध्यात्मयोगी स्व. उपाध्यायप्रवर श्री पुष्करमुनि जी म. अपनी । अध्यात्मयोगी में चारित्रयोग की तल्लीनता इहलौकिक जीवन यात्रा पूर्ण करके चले गए, किन्तु उनकी अध्यात्म और साधु जीवन की दैनिक चर्या में स्वाध्याय, प्रवचन, यात्रा की मधुर एवं प्रेरक स्मृतियां उन्हें अमर बना गई हैं। मंगलपाठ श्रवण, भिक्षाचर्या, शयन, जागरण, बाह्य तप, आहार, अध्यात्मयोगी का लक्षण और स्वरूप विहार इत्यादि दैनन्दिन क्रिया भी वे उपयोग-सहित, यन्नाचार-युक्त, सर्वप्रथम हमें अध्यात्मयोगी का लक्षण और स्वरूप समझना जागृत एवं अप्रमत्त रहकर करते थे, तब उनका कर्मयोग ज्ञान एवं चाहिए। भगवद्गीता में योग की सर्वाधिक व्यापक और सार्थक श्रद्धापूर्वक ही दृष्टिगोचर होता था। अतः हम कह सकते हैं। व्याख्या की गई है। वह है जब-जब वे जप, ध्यान, प्रतिसंलीनता, समाधि, धारणा या स्तोत्रपाठ आदि में तल्लीन होते थे, तब-तब वे भक्त, साधक या योगी प्रतीत 'योगः कर्मसु कौशलम्" होते थे, किन्तु उनके अन्तर में यही विवेकसूत्र गूंजता रहता था"कर्म में कुशलता योग है।" "जय चरे, जयं चिट्टे, जयमासे जयं सएं। जब किसी सम्यग्ज्ञान, सम्यक्भक्ति (सम्यकदर्शन) और जयं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ॥२ सम्यक्रिया (सत्कर्म) में दक्षता, निष्ठा, तन्मयतायुक्त कुशलता घुल-मिल जाती है, तब गीता की भाषा में वह योग बन जाता है। जो साधक यातना (उपयोग) सहित चलता है (प्रत्येक चर्या कोरा ज्ञान, चाहे वह सम्यग्ज्ञान हो, योग नहीं है, अकेली श्रद्धाभक्ति करता है), यतनापूर्वक बैठता है, खड़ा होता है और यतनाचारपूर्व भी योग नहीं होती और न ही अकेला सम्यक्चारित्र (सक्रिया या सोता है, आहार करता है या वस्तुओं का या पंचेन्द्रिय-विषयों का सत्कर्म) स्वयं योग बनता है, किन्तु इन तीनों में जब कुशलता, उपभोग करता है, यतापूर्वक बोलता है, वह पापकर्म का बन्ध ध्येय निष्ठा, रागद्वेष रहित निष्ठा, ध्येय के प्रति एकान्मता एवं नहीं करता। उदात्तता का संगम होता है, तभी इन्हें योग बना देता है। वस्तुतः उनमें अध्यात्म योग सहजरूप से प्रस्फुटित था कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग, इन तीनों का मिलन ही । यही है जैन दृष्टि से अध्यात्मयोग! प्रत्येक प्रवृत्ति, प्रत्येक चर्या “अध्यात्मयोग" है। अथवा प्रत्येक क्रिया में प्रियता-अप्रियता, राग या द्वेष, मोह और जो उपर्युक्त अध्यात्मयोग से संपन्न हो, अर्थात् जो उक्त योगत्रय द्रोह, आसक्ति और घृणा के भाव से रहित सिर्फ ज्ञाता-द्रष्टा रहना में कुशल, दक्ष, एकनिष्ठ और रत हो, उसे हम अध्यात्मयोगी कह ही कर्म कौशल है, यतनाचार है, एकमात्र शुद्ध आत्मा या परमात्मा सकते हैं। के प्रति निष्ठा भक्ति है, उसी के स्वरूप में रमणता है, आत्मा के उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी : अध्यात्मयोग संपन्न सहज स्वाभाविक गुणों के प्रति ही दौड़ है। यही अध्यात्मयोग अध्यात्मयोगी उपाध्यायश्री पुष्करमुनि जी में सहज रूप से प्रस्फुटित स्व. उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. के समग्र जीक्न पर था। उनमें ज्ञानधारा के साथ भक्ति की शीतल धारा और साधुत्व दृष्टिपात करते हैं तो उनका जीवन ज्ञान के प्रदीप से जगमगाता की स्व-परकल्याण साधना में पुरुषार्थ की कर्म (कर्तव्य) धारा रहा है। उन्होंने जो साहित्य-सर्जन किया है, तत्वज्ञान के अगाध प्रवहमान थी। सागर में गहरे होते लगाए हैं, प्रवचन कल ज्ञानगंगा की अजन धारा बहाई है, उससे उनमें ज्ञानयोग का आलोकित प्रदीप देखा जा | अध्यात्मयोगी में ज्ञप्ति, भक्ति और शक्ति तीनों का मिलन अनिवार्य सकता है। जब वे भक्तिप्रवण स्तोत्र पाठ करते थे, परमात्मा की आज की भाषा में कहें तो, उनमें ज्ञप्ति, भक्ति और शक्ति स्मृति और गुणगान श्रद्धाभाव में विभोर होकर करते थे, आत्मा की (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) तीनों का अपूर्व त्रिवेणी संगम था। अमरता और अनन्त चतुष्ट्यरूपता पर विश्वास रखकर जप, ज्ञप्तिविहीन भक्ति अन्धभक्ति हो जाती है, इसी प्रकार भक्तिविहीन ध्यान, कायोत्सर्ग, मौन और व्युत्सर्ग या प्रतिसंलीनता तप में ज्ञप्ति निष्क्रिय वाणी विलास हो जाती है तथैव भक्तिविहीन शक्ति अन्तर्मुख हो जाते थे, तब उनकी आत्मनिष्ठा देखते ही बनती थी, भयंकर एवं अनर्थकारी हो जाती है तो शक्तिविहीन भक्ति दीनता किन्तु यह सब होता था ज्ञानयोग के साथ भक्तियोग। एवं दैन्यता से युक्त हो जाती है। इसीलिए जैनधर्म के वीतराग 100.0001 SOD.DO49. भगवद्गीता २. दशवैकालिक अ.४, गा.८ SDainEducation internatioriap.ODDDD00-30 So www.iainebrary ore
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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