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________________ 909665000 A तल से शिखर तक ___२७१ । 1000000 प्राणलेवा आघातों को सहन करते रहे और निष्कम्प साधना में लीन है। उनका क्षणिक सान्निध्य पाकर हजारों-हजारों नर-नारियाँ, रहे तथा अन्ततः उन सभी को निस्तेज होकर परास्त होना हुआ। आबालवृद्ध अभक्ष्य त्याग का व्रत लेकर सन्मार्ग पर चलने की तब से अब तक प्रतिवर्ष निर्विन वर्षावास होता है और तमाम | प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उपाध्यायश्री व्यवस्था विशेष से भले ही जुड़े साधु-साध्वी महाराज पधारते रहते हैं। क्षेत्र शुद्धि कर उपाध्यायश्री । हों किन्तु उनके उदारमना व्यक्तित्व ने साम्प्रदायिकता को कभी ने उसे पूर्णतः धार्मिक क्षेत्र बना दिया। वे सचमुच मंत्र द्रष्टा थे। प्रश्रय नहीं दिया। वे सभी में घनीभूत थे सचमुच ज्ञान, श्रद्धान और जब मुनिश्री राजेन्द्र एम. ए. ने अपनी ओर से पी-एच. डी. अवधान के अद्भुत संगम थे। हेतु शोध-प्रबंध रच डाला तब दर्शनार्थ मुझे आमंत्रित किया गया। ज्ञान और ध्यान के महान् साधक पूज्य उपाध्यायश्री ने आगम अधिक वर्षा होने के कारणवश उन-उन क्षेत्रों में मेरा पहुँचना नहीं पर आधारित काव्य, कथा-कहानी और प्रवचन नामक काव्य रूपों हुआ। जब आपश्री जोधपुर पधारे तो मेरा वहाँ किसी तरह पहुँचना | में विपुल साहित्य का सृजन किया। वाणी चारित्र की प्रतिध्वनि सम्भव हो गया। जोधपुर में जैन स्थानक मेरे लिए एकदान नया होती है। उपाध्यायश्री की वाणी वस्तुतः शास्त्र बन गई। आपके 12906 स्थल था उस पर हमारा पहुँचना हुआ रात्रि के दस बजे के बाद। जीवन में कल्याणकारी बातें प्रायः आत्मसात हो गयी थीं। इस स्टेशन से बाहर निकलते ही सामने एक दुकान है जिसके नियामक प्रकार उनका व्यक्तित्व और कृतित्व प्राणी मात्र के लिए प्रेरक प्रदीप से मुझे जैन स्थानक की पड़ताल करनी पड़ी। जैन स्थानक बतलाने बन गया था। देश के अनेक शिष्ट और विशिष्ट व्यक्तित्व राजनेता, में वह और सभी प्रायः असमर्थ रहे पर मुँहपट्टी साधुओं के विषय । धर्म नेता, तत्त्ववेत्ता, विद्वान और विदुषी, कृषक और श्रमिक तथा में जानकारी देने में वह समर्थ प्रमाणित हुआ। उसने कहा इन । साक्षर-निरक्षर आपके सम्पर्क में आकर सभी असमर्थ पूर्णतः समर्थ साधुओं में एक वृद्ध साधु हैं वे एक पहुँचे हुए सिद्धात्मा हैं। आप बन जाते थे। कहें तो मैं आपको उनके पास पहुँचा दूँ फिर कदाचित् वहाँ से । विक्रम सम्वत् २०५० चैत्र शुक्ला ११ खष्टाब्दि १९९३, २ आपको जैनस्थानक (महावीर भवन) भी मिल जाय। मैंने मौन । अप्रेल को कठिन व्याधि के पश्चात् आपश्री ने समाधि-मरण का स्वीकृति दे दी और हम लोग चल पड़े। गलियाँ तो मथुरा की । संकल्प लेकर संथारा ग्रहण किया और अविचल योगलीन स्थिति में प्रसिद्ध रही हैं पर यहाँ के गलिहारे कुछ कम नहीं। गलियों के अड़तालीस घण्टों के पश्चात् जीवनदीप निर्वाण को प्राप्ति हो गया। दुर्गमन के बाद मेरा उस स्थान पर पहुँचना हुआ जहाँ पूज्य उपाध्यायश्री का प्रवास था। विशाल भवन हवेली के नाम से अत्यन्त इस प्रकार उपाध्यायश्री शुक्ल पक्ष में उत्पन्न हुए, शुक्ल पक्ष में प्रसिद्ध पर आम आदमी उसे जैनस्थानक या महावीर भवन के रूप प्रदीक्षित हुए और शुक्ल पक्ष में शुक्ल-ध्यान में सदा-सदा के लिए में नहीं जानता। यह जादुई प्रभाव था उपाध्यायश्री का जो पूरे क्षेत्र शान्त हो गए। यह शुक्ल पक्षीय मंगल संयोग सिद्ध करता है कि में, जैन-अजैन समुदाय में, अपने वात्सल्यमयी वातावरण विकीर्ण पूजनीय उपाध्यायश्री प्रभावंत नक्षत्री जीव थे। काव्यशास्त्रीय भाषा करने में सर्वथा सफल रहता। में कहूँ तो वे श्रमणचर्या के सचमुच साकार अनन्वय अलंकार थे। ऐसी पूत आत्मा को मेरे शत-सहन वंदन-अभिवंदन। इत्यलम्! जैन संत सदा पद-यात्री होते हैं। इसीलिए उनका जनसाधारण से भी सम्पर्क सधता जाता है। वे विभिन्न भाषा-भाषियों के सम्पर्क में आते हैं। उन्हें संसार का यथार्थ स्वरूप देखने को प्राप्त होता है। मंगल कलश' दारुणदुःखों से पीड़ित प्राणियों को अपने उपदेशों में उन्हें संयम ३९, सर्वोदय नगर और सदाचार की ओर उन्मुख कर सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा | आगरा रोड, अलीगढ़-२०२ 009 देते हैं। उपाध्यायश्री की इस दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही Jobs 100.00.00 102 .3 JPG Desidoa Joad * जीत सदा सत्य की ही होती है। जब झूठ जीतता है तो थोड़ी देर तालियां पिट जाती हैं और सत्य की विजय होती है तो युग-युग तक दीवाली मनाई जाती है। * जिसके पास साहस और संकल्प है, उसके बल का मुकाबला नहीं। -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि 06:005000 SoSoASONS 6- Jan Edition itenzoals For Pricate Personal use only 20000000003 0000 warm janslitimes
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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