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________________ २६६ चन्दन चिता से उठती अग्नि की सुगंधमय ज्वालाएँ मानो यह कह रही थीं मैं मनुष्य के पार्थिव शरीर को ही जलाकर भस्म कर सकती हूँ, किन्तु उनके यश सौरभ को मिटाना मेरे वश में नहीं। सद्पुरुषों की सद्गुण ज्योति को मन्द करने की शक्ति मुझमें नहीं है। जहाँ भी गुरुदेवश्री के स्वर्गवास के समाचार पहुँचे, यहाँ पर बाजार बंद हो गये। टेलीविजन, बी. बी. सी. तथा आकाशवाणी के द्वारा गुरुदेवश्री के स्वर्गवास के समाचार प्रसारित हो गये । जगह-जगह स्मृति सभाओं का आयोजन किया गया। गुरुदेवश्री की जीवन यात्रा की तरह उनके पार्थिव शरीर की यात्रा भी पूरी भव्यता और दिव्यता के साथ संपन्न हुई। हमने आपसे कहा था कि ऐसे महोत्सव को अपनी आँखों से देखने के लिए यदि देवगण भी स्वर्ग से इस भूतल पर उतर आएँ तो कोई विस्मय की बात नहीं। वही हुआ भी । चंदन की चिता जल रही थी। आकाश से केशर की वर्षा हो रही थी। और वह केशर वर्षा गुरुदेवश्री के स्वर्गारोहण के ठीक एक माह पश्चात् भी उस स्थल पर हुई। 100. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ एक नहीं, दो महोत्सव हो गए, साथ ही साथ । पवित्रता तथा स्वर्गीय सौरभ से युक्त वह केशरवर्षण उस शुभ अवसर पर, उस धन्य स्थल पर, यदि देवताओं की भी उपस्थिति का प्रमाण नहीं तो फिर क्या है ? एक महिमामय महान् जीवन के महाकाव्य के महागान के शुभ संजीवन-संगीत के स्वर शून्य में समा गए। एक अनन्त, अमर, आध्यात्मिक आलोकपुंज अदृश्य हो गया। अपने भव्य जीवन के साथ भव्यतम मरण महोत्सव मनाता आत्मा का अमर पंछी अन्ततः उड़ गया। अपनी अजानी, ऊँची से ऊँची उड़ान पर ! देह का जन्म होता है। देह का ही मरण। किन्तु जब गुरुदेवश्री के जैसी परम पावन महान् आत्माएँ देह त्याग करके अपने अनन्त आवास की ओर लौटती हैं, तो वह अवसर एक महोत्सव का ही होता है। देह का पुष्प विलीन होकर माटी में मिल जाय इससे पहले ही इसे संथारा और समाधि मृत्यु की वेदी पर चढ़ाकर सार्थकता अनुभव करूँ यही मेरी अन्तिम भावना है। यह दीपक बुझ जायेगा फिर अंधेरा छाने वाला है। किन्तु मैं अपने आत्म-मन्दिर में प्रकाश फैलाकर कण-कण को आलोकमय बनालूं, ऐसा उजाला यहाँ कर दूँ कि दीपक बुझ जाने के पश्चात् भी मेरे आत्म-मन्दिर में प्रकाश ही प्रकाश रहे । " जब तक शरीर के साथ आत्मा की अभेदानुभूति है, तबतक वेदना, पीड़ा, परिषह सभी कष्ट देते हैं, पीड़ा का अनुभव होता है, जब-जब ज्ञान चेतना आत्म-चेतना में रमती है। शरीर भावना छूट जाती है। तब न सर्दी लगती है, न गर्मी! न भूख सताती है, न प्यास! शरीर की पीड़ा शरीर तक ! मन पीड़ा से मुक्त आनन्द अनुभव करता रहे। मैं इस स्थिति का अनुभव करना चाहता हूँ। -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि For Private & Berghat Bee only www.jalneligrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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