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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर स्वशिष्यं देवेन्द्रं नववयसि दीक्षामधिगतम्, विरक्तिं संसारादभिनवमतिं बालकधियम् । कथं कृत्वा चैनं शिशुमिव पुनीतं गुरुरयम्, व्यदाद् विद्यावृत्तिं मनसि मम नैति स्मृतिपथम् ॥९॥ महाश्चर्यं मन्ये कथमिममबोधं मुनिमहो ! स्वशिष्यं देवेन्द्रं मनसिजविकारादपि सदा । अरक्षद् मोक्षार्थी मुनिषु परमः पुष्करमुनिः, स एवाऽस्त्याचार्यः श्रमण शुभसङ्खेऽप्यधिकृतः ॥१०॥ स्मृतिं पूतां ध्यातुं विदधति कृतज्ञा भुवि गुरोः, सुशिष्यास्तस्यान्ते विमलमुनयः पुष्करमुनेः। स्मृतेर्ग्रन्थं स्रष्टुं सृजति शुभयनं पुनरिमम्, कृतज्ञाः शिष्या ये विहितमुपकारं जहति किम् ? |99 || उपाध्यायं वीरं जपिषु परमं योगिनमिमम्, महात्मानोऽप्यन्येऽभिदधति गुरुं पुष्करमुनिम् । अमन्यन्त श्रेष्ठं मुनिषु मुनिमेकं गुण-मणिम्, कथानां साहित्ये कविमपि महान्तं सुरगिरः ॥ १२ ॥ मुनीनामैक्यार्थं गुरुरयमहो ! पुष्कर मुनिः, सदैवैच्छत्सङ्घे विकृतमुनिवादेऽप्याभिरतान् । मुनीन् स्वीयान् मान्यान् विदधतु विधानं यदुचितम्, तदा निन्दावादैरलमिति विपत्तेः प्रशमनम् ॥ १३ ॥ परन्त्वन्ये सन्तः कथमपि विवादं शमयितुम्, यदा नैच्छन्नन्ते मुनय इति चैते व्यपगताः । विरच्यान्यं सङ्घ रचयितुमलं ते प्रतिदिनम्, स्वकीयं माहात्म्यं प्रतिमुनिसमीपे दधति रे ! ||१४|| भवत्वन्यः सङ्घः किमपि तु फलं स्यात् त्रिभुवने, समाजश्चैकोऽयं न च किमपि वेषेऽन्तरमिदम्। विवादश्चारित्र्ये चलति पुनरेको मतिकृतः, ततश्चावोचन्मे भवतु पुनरैक्यं गुरुमुनिः ॥१५ ॥ प्रणामान्ते वाक्यं प्रियतरमथैतद् गुरुमुखात्, अरे पुण्यात्मन्! त्वं चर करुण धर्मं स्वनुसृतम्। अशृण्वं सौभाग्याद् न हि किमपि वाक्यं श्रुतमतः न मन्दो दौर्भाग्याद् भवति हृषितात्मा पुनरयम् ॥१६ ॥ कियानासीत्प्रेमा सकल जनतायां गुरुमुनेः, ब्रजेत् व्काऽप्येषोऽयं प्रियजनसमूहः स्वयमहो ! समायात्सद्यस्तं सविधिनमनार्थं चरणयोः, तथा प्रष्टुं सेवां न किमपि तु वाक्यैरुदतरत् ॥१७॥ १८९ बालबुद्धि अपने शिष्य को जो नवदीक्षित थे, संसार से विरक्त हुए को, जो बच्चे ही थे, उनको किस प्रकार की शिक्षा दी कि वे श्रमणाचार्य हो गए। इस बात को विचार कर मेरा मन आज तक कोई उदाहरण नहीं ढूँढ़ सका ! ||९ ॥ मुनियों में मोक्षार्थी श्री पुष्कर मुनिजी महाराज ने संसार के विकार से दूर, अबोध शिष्य को छोटी अवस्था के रहते हुए इस योग्य बना दिया कि वे श्रमणसंघ के आचार्य पद पर अधिकृत हुए ॥१०॥ जगत् में गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के पवित्र शिष्य, उनके शरीरान्त पर उनकी पावन स्मृति को स्थिर करने के लिये स्मृति ग्रन्थ को रच रहे हैं। क्योंकि कृतज्ञ शिष्य गुरु के उपकार को क्या कभी भुला सकते हैं। अर्थात् कभी नहीं भुला सकते ॥११॥ जपकर्त्ताओं में वीर इन परमयोगी श्रीयुत् उपाध्याय पुष्कर मुनिजी महाराज को अन्य महात्मा भी अपना गुरु मानते हैं और मुनिजन में इनको कथाओं के साहित्य में मर्मज्ञ और देवभाषा महान् कवि मानकर आदर करते हैं ॥१२ ॥ ये गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज मुनियों की एकता के लिये सदा चाहते रहे और पारस्परिक निन्दावाद को त्यागने के लिये कहते रहे। क्योंकि ऐसा करने से व्यर्थ के निन्दावाद की स्वतः शान्ति हो जाती है ॥१३॥ किन्तु प्रयत्न के रहते हुए भी, जब अन्य मुनिजन ने नहीं चाहा, अपितु अपने-अपने संघ बनाने लगे और अपने को ही पूज्य मानने लगे ॥१४॥ त्रिभुवन में अन्य संघ होने से कोई परिणाम नहीं मिलता। समाज तो एक ही है। वस्त्र और रीति-रिवाज सब एक-से हैं। केवल कल्पना द्वारा अपने चारित्र्य की विशेषता बताना है। अतः गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज ने सदा एकता की पहल की ॥ १५ ॥ प्रणाम करने के पश्चात् गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के श्रीमुख से यही सुनते थे कि अरे पुण्यात्मा ! सदा दयाधर्म का पालन कर। इस वाक्य के अतिरिक्त कोई दूसरा वाक्य नहीं सुना, किन्तु दुर्भाग्य से यदि कोई प्रसन्न न हो तो क्या हो ! ॥ १६ ॥ गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज का जनता में प्रेम ही कुछ विलक्षण था ! कहीं पर भी पहुँचते तो जनसमूह उमड़ने लगता और चरण वन्दना की होड़-सी लग जाती थी। और सेवा के अतिरिक्त उनके मुख से कुछ नहीं निकलता था ॥ १७ ॥ airtelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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