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________________ Jain Education is १८८ श्रीमदुपाध्याय - गुरुदेव- पुष्करमुनीनाम् स्मृति-स्तोत्रम् - पं. श्री रमाशंकर शास्त्री (अजमेर) (शिखरिणीवृत्ते) उपाध्यायं सन्तं यशसि गुरुदेवं व्यवहृतम्, महात्मानं जैनं नमति भुवनं भूसुरजनिम् । महान्तं श्रीमन्तं जगति विदितं पुष्कर मुनिम्, दधाम्यन्ते भक्त्या त्रिविधिविहितं वन्दनमहम् ॥१ ॥ गुणान् भव्यानस्य सदसि विदुषामेव हि सदा, स्तुतान् श्रुत्वा सर्वे मनसि मुनयो मे सहृदयाः । प्रसीदन्तीत्येवं गुणिषु गणितः पुष्करमुनिः, भवेदन्तेऽवश्यं वचनकुशलो जैनजगतः ॥ २ ॥ अभूदध्यात्मज्ञः परमनिपुणश्चिन्तनविधेः, कृती जैनन्याये कविरपि तदा संस्कृतगिरः । विजेता कामस्य प्रकृतिसरलो भव्य पुरुषः, कथं वक्तुं शक्तः परमविकृतः स्यामहमिमम् ॥ ३ ॥ अपारं माहात्म्यं पुनरहमहो! पुष्करमुनेः, कथं स्यां ख्यातुं तज् जगति विषयव्यापृतमतिः । महामूर्खः श्रुत्वा सदसि विदुषां सद्गुणभृताम्, मुनीनां जैनानां मतमभिहितं तत्समवदम् ॥४॥ गुरु ताराचन्द्र स्थविरवरपूज्यं पुनरयम्, गुणैः स्वीयैः सर्वैः प्रतिदिनमतुष्यत् प्रतिपदम्। फलं तस्यैवेदं मुनिजनगणे सुस्फुटमिदम्, प्रधानः शिष्योऽभूत् परममहिमा भूसुरमुनिः ॥५॥ नमस्कारान् मन्त्रान् प्रतिदिनमथाऽयं समजपत्, ततो लब्ध्वा सिद्धिं जनगणविपन्नं व्युदहरत् । अरे ! साक्षाद् दृष्ट्वा परमचकितोऽहं समभवम्, तथाऽप्यन्यान् तोष्टुं न हि पुनरहं स्यां प्रतिनिधिः || ६ || चमत्कारी साधुर्मुनिषु परमः पुष्करमुनिः, महात्मा जैनोऽयं यदपि जनितो भूसुरगृहे । स्वकीयं शिष्य-यो रचयति मुनीन्द्रं मुनिषु तम्, तदाऽऽचार्यं वोक्तं श्रमणगणवरेण्यं गुरुवरम् ॥७ ॥ कियान् सन् श्रेष्ठोऽयं परमविनयी यो मुनिजने, पुनीतानाचार्यान् श्रमणवर सङ्घात्प्रचलितान् । प्रणम्यानेतुं तान् यतति पुनरेकः प्रतिदिनम्, यतोऽहं ज्ञात्वैतत्स्वयमभिमतं तद् व्यरचयम् ॥८ ॥ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ गुरुदेव-पुष्करमुनि- स्मृति-स्तोत्र -पं. श्री रमाशङ्कर शास्त्री (हिन्दी अनुवाद) परमविख्यात महात्मा, ब्राह्मण, प्रसिद्धि में जिनको गुरुदेव कहते हैं, जिनको जैन मुनि होने के कारण विश्व जिनको प्रणाम करता है, ऐसे जगप्रसिद्ध सन्त श्रीयुत् पुष्कर मुनिजी महाराज को तिखुत्तो सहित भक्ति के साथ अन्त में मैं प्रणाम करता हूँ ॥१ ॥ विद्वत्सभा में जिनके गुणों की प्रशंसा को सुनकर मेरे सहृदय मुनिजन प्रसन्न होते हैं, जिनकी गुणियों में गणना होती है। अतएव जैनजगत् का जिनको प्रवक्ता कहा गया है ॥२॥ जो वास्तव में अध्यात्म के ज्ञाता, विचारनिपुण, जैन-न्याय में प्रवीण, संस्कृत भाषा के कवि, कामविजयी, प्रकृति से सरल और भव्याकृति को मैं महाविकीर्ण होकर भला ! किस प्रकार इनको यथार्थ में वर्णन कर सकता हूँ ॥ ३ ॥ अहो ! विकारी होकर मैं, इन गुरुदेव कीर्ति महात्मा श्रीयुत् पुष्कर मुनिजी महाराज के अपार माहात्म्य को यथावत् कैसे कह सकता हूँ। सद्गुणी जैन महात्मा की विद्वत्सभा में इस महामूर्ख ने मत को सुनकर कह डाला है ॥४ ॥ इन गुरुदेव श्रीयुत् पुष्कर मुनिजी महाराज ने अपने गुरु स्थविर वर पूज्य श्रीमान् श्रीताराचन्द्रजी महाराज को, अपने सभी प्रकार के गुणों से प्रतिदिन स्थान-स्थान पर उनको प्रसन्न रखा, उस सबका ही परिणाम है कि अतुलित गुणयुक्त, ब्राह्मण मुनि, प्रधान शिष्य श्री पुष्कर मुनिजी बने ॥ ५ ॥ गुरु महाराज श्री ताराचन्द्रजी महाराज के आदेश से आपने प्रतिदिन नमस्कार मन्त्रों का जप कर सिद्धि प्राप्त की और दुःखियों के दुःख दूर किये। जिसको साक्षात् देखकर मैं चकरा गया। फ भी मैं दूसरों को सन्तुष्ट करने का प्रतिनिधि नहीं हो सकता ॥ ६ ॥ ब्राह्मणों के घर में जन्म लिए हुए जैन मुनि होकर मुनियों में बड़े चमत्कारी श्री पुष्कर मुनिजी महात्मा बने । जिन्होंने कि अपने ही शिष्य को श्रमणगण में पूजनीय आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया ॥७॥ आपश्री मुनियों के समुदाय में कितने विनीत और श्रेष्ठ सन्त थे कि जो मुनिजन श्रमणसंघ को छोड़कर चले गये हैं, उनको पुनः नमन कर सदा श्रमणसंघ में लाने का प्रयत्न किया, जिसको जानकर मैंने भी अपना वैसा ही विचार बनाया कि आप वास्तव में एक श्रमणसंघ हो ऐसा चाहते थे॥८॥
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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