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________________ १९० तदाऽऽश्चर्यं कीदृक् पुनरिह गुरोः पुष्करमुनेः, सुबालं देवेन्द्रं कथमिममशिक्षद् गुणगणम् । महोत्कृष्टं विश्वे स्वयमपि समाधौ जपविधेः, सदा लग्नोऽतिष्ठद् रचयति मुनिं गीष्पतिसमम् ॥ १८ ॥ अतुल्यं माहात्म्यं जगति परमं विस्मयकरम्, तदासीदस्यैतद् भवति पुनरेकं गुरुमुनेः। महाचार्यः पूज्यः श्रमणवरसङ्घऽभवदयम्, गुरोः शुश्रूषायाः फलमिदमहो ! सम्प्रकटितम् ॥१९॥ कदाप्यन्यं सन्तं कमपि मुनिसङ्घादपसृतम्, महात्माऽयं ज्ञात्वाऽप्युचितविधिवाक्यैर्व्यवहृतम्। तदेमं तेऽप्यन्ये विदधति विधिं तं समुचितम्, वदाम्येनं तस्मान् मुनिषु परमं पुष्करमुनिम् ॥ २० ॥ तदाऽऽपाते काले मुनिरयमथाऽऽसीद् व्यथितवत्, विपन्नो वा दुःखादवददिति दुःखं समुचितम् । परन्तु व्याख्याने प्रकटयति नित्यं वचनतः, स्वकीयं हृद्दुःखं सदसि वचनैर्वाऽनिशमहो ! ||२१|| प्रमाणं मे कर्णौ स्वयमहमरे ! स्यामपि तदा, नियुक्तोऽहं चासं वटुमुनि जनानां विषयतः । सुशिक्षादानार्थं सततमहमासं सहचरः, विहारे काले वा वसतिसमये प्रावृषि ऋतौ ॥ २२ ॥ स्वशिष्याणां शिक्षावितरणविधी जागृतिरियम्, प्रदीप्तैवासीन्मे गुरुमुनिमणेः पुष्करमुनेः । अतः सर्वे शिष्या विविधविषये सन्ति गुणिनः, स्वभिज्ञाः शास्त्राणां किमहमभिदध्यां पुनरहो ! ॥२३॥ अपूर्वं सामर्थ्यं किमपि तु गुरौ पुष्करमुनौ, न वक्तुं स्यां योग्यः पुनरपि वदेयं किमपि तत् । यथाज्ञानं किञ्चिद् यदभिलषितं तदखिलम्, तदानेनैवाप्तं मुनिषु गुरुदेवोज्ज्वल पदम् ॥२४॥ मुनेस्ताराचन्द्रात्स्थविर गुरुदेवाद् मुनिरयम्, शुभां दीक्षां लब्ध्वा यशसि गुरुदेवोऽभवदहो ! महत्त्वं तस्यैतन् मुनिषु गणनीयं मम मते, मनुष्यं सामान्यं रचयति मुनिं पुष्कर मुनिः ॥ २५ ॥ गुरोराज्ञां धृत्वा शिरसि जपमेकं प्रतिदिवम्, जपन्नेषोऽभून्मे परममुनिरेको गुरुरयम् । महान् विश्वे सिद्धो मुनिसदसि मान्यो मुनिगुरुः, तदाऽस्यैकः परमगुरुदेवः पुनरभूत् ॥ २६ ॥ JO TH विचार उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ तब फिर यह कितने आश्चर्य की बात गुरुदेव श्रीमान् पुष्करमुनिजी महाराज की है कि इन्होंने स्वयं ध्यानमग्न रहते हुए अपने सुशील शिष्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज को कैसे गुण-गण सिखा दिये ! जिससे कि वे बृहस्पति के समान बन गये ॥१८॥ यह कितना आश्चर्यजनक गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज का एक माहात्म्य है कि गुरुसेवा का परिणाम प्रकट हुआ कि ये शिष्य महोदय तो श्रमणसंघ के पूज्य आचार्य बने और स्वयंमुक्त होकर सिद्ध शिलावासी हो गये ॥ १९ ॥ गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज एक अद्वितीय सहानुभूति वाले सन्त थे, जो सदा अन्य सन्तों को भी अपने साथ लेकर चलते थे। यही कारण था कि आप सदा जिनको अन्य सन्त निरादृत करते थे, उनको आप आश्रय देते थे ॥ २० ॥ आपश्री आपातकाल के समय, व्यथित के समान दुःखी हो उठते थे और दुःख से कहते थे कि यह दुःख यथार्थ है । किन्तु अपने व्याख्यान में वचनों से अपने हृदय के दुःख को सदा प्रकट करते थे। वे वास्तव में राष्ट्रीय सन्त थे ॥ २१ ॥ इस बात का मैं स्वयं साक्षी हूँ, क्योंकि मैं बालमुनियों के शिक्षण के लिये नियुक्त था। अतएव मैं मुनियों के साथ निरन्तर बना रहता था। चाहे फिर विहारकाल हो अथवा वर्षावास हो ॥ २२ ॥ स्मरणीय बात है कि गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज के विचार से बालमुनियों की शिक्षा की भावना बड़ी उत्कट थी । इसी हेतु से सभी आपके शिष्यजन विविध विषयों में प्रवीण हैं ॥ २३ ॥ गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज में अपूर्व सामर्थ्य था ! जिसको कहने के योग्य नहीं हूँ। पुनरपि मैं यथा तथा के रूप में कुछ कह सकता हूँ कि जो इन्होंने चाहा, वह मुनिजन में उज्ज्वल गुरुदेव पद प्राप्त किया। इसको सभी जानते हैं ॥ २४ ॥ अरे! स्थविर गुरुदेव श्री ताराचन्द्रजी महाराज से शुभ भागवती दीक्षा ग्रहण कर कीर्ति में आप गुरुदेव कहलाये। मेरे विचार से मुनिजन में इससे बड़ा कोई यश नहीं हो सकता ! पुनः महत्त्व की बात यह है कि आपके शिष्य श्रमणाचार्य बन गये॥ २५ ॥ गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज अपने गुरु महाराज की आज्ञा को अपने सिर पर धारण कर ही प्रतिदिन जप करते ही एक महामुनिराज हुए। उसके प्रभाव से ही आज आपके शिष्य श्रीयुत् देवेन्द्र मुनिजी महाराज श्रमणों के आचार्य बने ॥ २६ ॥
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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