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________________ १६४ ( मुख पर ) हास से युक्त (वह) शिशु अपने हाथ-पैरों को हिलाता हुआ बड़ा होता (जा रहा है। वह चन्द्रमुख वाला भद्र माता की प्रिय गोदी रूप कमल में क्रीड़ा करता है। ( इस गाथा में चन्द्र और कमल की विरोधी बात कही गयी है। चन्द्रोदय में कमल कुम्हलाता है, परन्तु यहाँ पुत्र के चन्द्रमुख से माता के अंकरूपी कमल में प्रियता उमड़ रही हैं अर्थात् पुत्र चन्द्र को अंक कमल प्रिय है और माँ का अंक कमल पुत्र चन्द्र के प्रेम में उल्लसित हो रहा है। इसके साथ आगे अंककमल के कुम्हलाने रूप वियोग की सूचना भी है ।) जणणी जयाणियं के, सिसुं गहिय चिट्ठई गिह-दुवारे । 'किच्या कवोलभाए, मुहं तस्स चुम्बइ सिरग्गं ॥८ ॥ जब माता अपनी गोद में बालक को लेकर घर के द्वार पर खड़ी रहती है, (तब) वह (दिशा की ओर देखती हुई) (अपने) कपोल भाग पर उसके मुख को रखकर सिर के अग्रभाग का चुम्बन करती है। पासइ दिसं सुहिट्ठा, आलिंगित्ता कया उरंसि हसइ । बालं रमाविऊणं, अम्बालालं रसमणुहवइ ॥ ९ ॥ (यह) प्रसन्न बनी हुई दिशा की ओर देखती है और कभी ( बालक का ) हृदय से आलिंगन करके हँसती है। (इस प्रकार ) माता अम्बालाल को खिलाकर रस का अनुभव करती है। कालो हु आगओ तो ताल देन्तो मुहं विहाडित्ता । जणणि गिलेइ दुट्ठो, पाडित्ताणं करा बालं ॥ १० ॥ उसके बाद (कभी) काल भी ताल देता हुआ मुँह फाड़कर आ गया। वह दुष्ट (जननी के हाथ से बालक को गिराकर माँ को निगल जाता है। पासइ तथा रुयंतो, अम्बालालोऽग्गिणाऽम्ब-जालतं । अच्छेरयं महन्तं जायं दट्ठूण निद्दयं कम्मं ॥ ११ ॥ तब रोता हुआ अम्बालाल माता को अग्नि से जलाते हुए | देखता है। उसे (इस किसी को अग्नि से जलाने रूप) निर्दय कर्म को देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। जाणइ जया उदन्तं सच्चं सो बीससेज नेव हि। जीवो कहं महंतो, एवं खलु निच्चलो होज्जा ॥१२॥ जब वह (अम्बालाल) सही वृत्तान्त को जानता है, तब यह (उस पर इस प्रकार ही (होता है) विश्वास ही नहीं करता है। ( वह सोचता है कि ) इतना बड़ा जीव ऐसे निश्चल कैसे हो जाता है ? पुष्फे व कोमलं तं सोओ गिण्हड हिमो व पीलेड़। कत्थ गयं मज्झ सुहं, इओ तओ सो पलोएइ ॥ १३ ॥ पुष्प से कोमल उस ( अम्बालाल) को शोक पकड़ लेता है और हिम (पात) सा पीड़ित करता है ( वह आर्तभाव से सोचता है ) "मेरा सुख कहाँ गया ?" और फिर वह इधर-उधर देखता है। Jan Education Internation 100 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ तं पासिऊण जणगो, लुहमणो णेव होइ साणंदो । पुव्यं व देइ किंचि ण ण व संलव ण हि चुंबे ॥१.४ ।। (उसे लगा) उसको देखकर रूक्ष मन वाले पिता (अब) जरा भी आनंदित नहीं होते हैं, पहले के समान कुछ देते नहीं हैं, न वार्तालाप करते हैं और न चुम्बन ही करते हैं। पुच्छइ पण कोयि तं ता, जियगेहे अभियो कडू जाओ। सुक्खइ सयं वहित्ता, अंसुं सुण्ण-णयणो होइ ॥ १५ ॥ ( मानो वह अपने घर में (ही) अप्रिय और कडुआ हो गया। अतः उसे कोई पूछता ही नहीं है। इस कारण उसके आँसू बहकर स्वयं ही सूख गये और (वह) शून्य नयन वाला हो जाता है। पेमपि अहिलसइ, सुक्क मुझे सो न किंचि तं पासइ। हियअं स एव रोवइ, चक्खूणि जलंति को जाणइ ॥ १६ ॥ प्रेम और प्रिय (जन) को (वह) चाहता है। (किन्तु) वह शुष्क मुँहवाला उस (प्रेम और प्रियजन) को कुछ नहीं देख पाता है। अतः (उसका) हृदय सदैव रोता है और आँखें जलती (रहती हैं। परन्तु (इसे) कौन जानता है? For Private & Personal Use GRO लग्गइ जगं पि सुण्णं, गेह-सुण्णयाइ जीवियं सुण्णं । मेहं व तम्मि समए, ताराचन्दं मुणिं पासइ ॥ १७ ॥ (उसे) घर की शून्यता से जगत् भी शून्य लगता है और जीवन भी शून्य लगता है। ऐसे समय में वह मेघ के समान (वात्सल्य अमृत की वर्षा करने वाले) श्री ताराचन्द्रजी मुनिराज को देखता है। सो जीवियस्स अट्ठ, लहेइ लाहं परं सुही होइ। आणंद-आलयं खलु, धम्मं पावेइ हरिस भरो ॥१८॥ वह (अम्बालाल मुनिराज की चरणसेवा से) परम लाभ रूप जीवन का अर्थ प्राप्त करता है। (अतः दुःख के दिन बीत जाते हैं। और) सुखी होता है। निश्चय आनन्द के आलय धर्म को प्राप्त करता है और हर्ष से भर जाता है। ९ 9 = १९८१ दिक्खिय गुरुस्स पाए, भू-सिद्धि-निहि-सीयरस्सिँ अद्दम्मि । पत्तं सुहं तु जंण य, तुल्लं किर तस्स भुवणम्मि ॥ १९ ॥ विक्रम संवत् १९८१ में गुरुदेव के श्रीचरणों में दीक्षित होकर (अम्बालालजी ने) जो सुख पाया, उसके तुल्य (तीन) भुवन में (कोई सुख ) नहीं है। जालोरए सुनयरे, उम्मिल्लिय णाण अक्खि लोहे | गिहिय गुरुस्स चरणं, जिण सासण- अंगणे धण्णो ॥ २० ॥ ( वह) ज्ञानरूपी नेत्र को खोलकर जिनशासन के आंगन में ( स्थित अपने ) गुरुदेव के चरण (के शरण) को जालोर नामक उत्तम नगर में ग्रहण करके धन्य बन कर (आनन्द में) लोटता है। www.jainelibrary.org 20920800
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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