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________________ 1 श्रद्धा का लहराता समन्दर १६३ संस्कृत भाषा निबद्ध प्राकृत भाषानिबद्ध । श्री पुष्करमुनिस्तव-पञ्चकम् -आचार्यकल्प श्री शुभचंद जी म. -१) श्री मद्विप्रकुलाम्बुजोदयदशीतांशुः तपस्वी सुधीः, अम्बालाल इति प्रथामधिगतः पश्चादसौ पुष्करः। राजस्थानगते शुभंयु-सिमटाराख्ये जनि प्राप्तवान्, ग्रामेऽश्वर्तुनवैक वैक्रम-समायामाश्विने मासके॥ -(२) तिथ्यां वै सितपक्षके मनुमितायां योगिराजोगुरुः श्रीमज्जैन-सुतत्त्वमेव निखिलं प्राचीचरत् सर्वतः। आजीवं मनुजेषु यो व्रतधरो धीरो महापण्डितो यो बाल्ये विषयेष्वसक्तमनसा ध्यायन् परं सत्यकम्॥ ३) श्रीमत्तारकचन्द्र नामगुरुश्चार्हन्त्य-दीक्षां पुरा सम्प्राप्यैव मुनीश्वरोऽध्ययनकृद् वैदुष्यमाप्तुं वरम्। सर्वाम्नाय-सुतत्त्व विन्मुनिवरो देशेष्वनेकेषु च, ज्ञानं देष्टुमना वरं स मनुजान् सम्भ्रान्तवान् सर्वतः॥ सिरिपुक्खरस्सुई : श्री पुष्कर स्तुति -प्रवर्तक श्री उमेशमुनि ‘अणु' भारहवासे खाया, एगा मेवाड-भूमि-नामस्थि। वीरा जस्सिँ पसिद्धा, जाया केई स तंत-पिया॥१॥ भारतवर्ष में 'मेवाड़भूमि' नामवाली प्रख्यात (भूमि) है। जिसमें कई स्वातन्त्र्य-प्रिय वीर (पुरुष) प्रसिद्ध हो गये हैं। तम्मण्डले अइलहू, सिमटारो णाम एगगं गाम। नीडं व दिय-गणाणं, तं पि आसओ दिआणं किर॥२॥ उस प्रदेश में सिमटार नाम का एक बहुत ही छोटा ग्राम है। वह ग्राम द्विजगणों (पक्षिवृन्दों) के घोंसले के समान द्विजजन (ब्राह्मण कुल का) आश्रयस्थान (के रूप में) था। सूरजमलजी-णामो, विप्पो तत्थ वसई हु साणंदो। घरणी वालीबाई, गिहस्स सोहा व जुण्हागा ॥३॥ उस ग्राम में 'श्री सूरजमलजी' नाम के एक ब्राह्मण रहते थे। निश्चय ही (उनका समय) आनन्द से युक्त (जा रहा) था क्योंकि उनकी गृहिणी वालीबाई घर की चाँदनी (और) शोभा सदृश थी। तस्स उयरा अवयरइ, एगो बालो सुगुत्त-पुण्णधरो। = १९६७ रिसि-रस-णिहि-ससि-अहे, हरिसभरा अम्मताया तो॥४॥ उन (वालीबाई) के उदर से एक सुगुप्त (= छिपे हुए) पुण्य वाले बालक का वि. सं. १९६७ में जन्म हुआ। उससे माता-पिता महान् हर्ष में भर गये। (बचपन में मातृ-वियोग आदि के कारण सुगुत्त पुण्णधरो कहा है।) णामकरणस्स दिवसे, अंबालालो-त्ति तस्स अभिहाणं। देन्ति सुरसेण तित्ता, पिम्म-फलं दठु नियगं विव॥५॥ वे (माता-पिता) नामकरण (संस्कार) के दिन अपने प्रेम के फल के समान (बालक को) देखकर, विशिष्ट रस से तृप्त (-से)होते हुए उस (बालक) का नाम अम्बालाल देते हैं। पुत्तो घरंसि जाओ, कस्स ण सुविणं मणंसि उवजायइ। वीसरइ पसव-पीलं, जणणी लीणा भविस्स सुहे॥६॥ घर में पुत्र का जन्म हुआ तो किसके मन में (भावि) स्वप्न नहीं उत्पन्न होते हैं ? (वैसे) माता (वालीबाई) भी प्रसव-पीड़ा को 25 भूल जाती हैं और भविष्य के सुख में लीन हो जाती हैं। वड्ढइ सिसू सहासो, पाणि-पाय-चालणं करित्ताणं। अम्बा-पियंक-कमले, चंदमुहो रमइ सो भद्दो॥७॥ श्रुत्वा यस्य मुखारविन्द-निरितं पीयूषतुल्यं वचः आत्मानं कृतकृत्यमेव मनुजा नार्यश्च जानन्तकि। नित्यं पुष्करनामधेयक उपाध्यायस्य यातः पदं पाञ्चालादि-मरुस्थलेषु विचरन् ख्यातिं परा लब्धवान्॥ दिव्यं ज्ञानमुपार्जयज्जिनवरस्याहो असौ शासनमध्युष्यामलभाः सुयुग् भगवतो धर्मानुरक्तः सदा। शास्त्रज्ञान-विचारणे मतिमतां व्यासायते यो वशी जीयाज्जैन-सुधर्म-तत्त्व विदलं शोभारते भारते॥ hdreallogintergational6650baccas BADAADADDOO e 59095698c000000RSONDS
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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