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________________ 0000000000000000 0900ROEDG0000000000606 V600.0603350.006965 STE न 500000000000000 00000000000 250geasaina | १२२ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । जी के चादर महोत्सव के अवसर पर उदयपुर में हुए। इन्हीं श्री को जैन समाज के उद्धार हेतु समर्पित किया, वह कभी भुलाई नहीं देवेन्द्रमुनि जी एवं श्री गणेशमुनि जी को साहित्य के अध्ययन में जा सकती है। सहयोग देने का गौरव मुझे सदैव गर्वान्वित करता रहेगा। अस्तु उस अस्तु जैन संस्कृति के उन्नायक, जैन जगत के ज्योतिर्धर नक्षत्र समय उपाध्यायश्री गंभीर बीमारी की अवस्था में थे। परन्तु उनके उस पावन तेजस्वी, यशस्वी संतश्रेष्ठ के चरणों में कोटि-कोटि तेजस्वी मुखमण्डल की छवि, उनका स्नेहासिक्त व्यक्तित्व फिर भी वंदन। यथास्थिति रूप में विद्यमान था। चादर महोत्सव अत्यंत भव्यता एवं उल्लासपूर्वक संपन्न हुआ। भारत के कोने-कोने से सहस्रों श्रद्धालु श्रावकों ने श्रद्धा संवलित हो उत्साहपूर्वक इसमें भाग लिया, वह [ जप ध्यान साधना के अद्भुत धनी ) अपूर्व था। उपाध्यायश्री भले ही अस्वस्थ होने से प्रत्यक्षतः इसमें उपस्थित -भेरूलाल सिंघवी नहीं हो सके, परन्तु उनके आशीर्वाद का साया निरन्तर उस सारे हम कितने सौभाग्यशाली रहे हैं कि हमारी पावन जन्म भूमि में आयोजन पर अपनी वात्सल्यमयी आभा बिखेरता रहा। इसी के गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का ननिहाल रहा है। फलस्वरूप आयोजन अत्यंत भव्यता से संपन्न हुआ और चार पाँच उनके बाल्यकाल की सुनहरी घड़ियाँ वहीं पर बीती हैं। क्योंकि दिन बाद ही उपाध्यायश्री अपनी मोक्ष यात्रा पर प्रयाण कर गये। उनकी मातेश्वरी प्रायः नान्देशमा ही रहती थी, इसलिए माँ के साथ ऐसा प्रतीत होता था मानो भीष्म पितामह की भाँति इस आयोजन गुरुदेवश्री भी वहीं पर रहे इसलिए वर्षों तक लोगों में यही विचार हेतु उन्होंने अपनी उपस्थिति को सहेज रखा था। वर्तमान युग में रहे कि गुरुदेव श्री की जन्मभूमि नान्देशमा ही है। नान्देशमा का इच्छा मृत्यु का इससे सुन्दर उदाहरण और कहाँ मिलेगा? बालक से लेकर वृद्ध तक जैन और अजैन सभी समाज के व्यक्ति अस्तु उपाध्यायश्री अपने नश्वर शरीर का तो परित्याग कर गुरुदेवश्री को अपना आराध्यदेव मानते रहे हैं, जब भी गुरुदेवश्री गये परन्तु उनका तेजस्वी व्यक्तित्व पीढ़ियों तक जैन समाज के पथ का नान्देशमा में पदार्पण होता, अपार भीड़ गुरुदर्शनों के लिए उमड़ को आलोकित करता रहेगा। पड़ती। आबाल-वृद्ध के चेहरों पर भक्ति की भागीरथी प्रवाहित होने उपाध्यायश्री के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर कितना कुछ लिखा लगती, सभी गुरुदेवश्री को अपना मानते थे और गुरुदेवश्री भी जा चुका है। उनकी दीक्षा स्वर्ण जयन्ती पर प्रकाशित बृहद् उन्हें अपना ही मानते थे। गुरुदेवश्री सभी से वार्तालाप करते, उनके अभिनन्दन ग्रंथ में जैन समाज के इस ज्योतिर्धर जगमगाते नक्षत्र के सुख-दुःख की बातें पूछते, अपनत्व की भावना के कारण ही सर्वतोमुखी व्यक्तित्व की शतशः विद्वान संतों एवं महासतियों, गुरुदेवश्री के तीन वर्षावास नान्देशमा में हुए, सन् १९२५, १९४३, १९५० ये तीन वर्षावास हुए। राजनीतिज्ञों एवं साहित्यकारों, दार्शनिकों एवं जन नेताओं ने जिस रूप में वंदना की है, वह अपूर्व है। उनकी तेजस्विता, सरलता, वर्षों से हम लोग यह प्रयास कर रहे थे कि गुरुदेवश्री का एक ज्ञान-साधना, प्रवचन पटुता एवं सबसे प्रमुख संगठन कुशलता की वर्षावास पुनः नान्देशमा में हो, गुरुदेवश्री की भी हार्दिक इच्छा थी जितनी प्रशंसा की जाए थोड़ी है। पर कुछ क्षेत्र स्पर्शना न होने से इस प्रकार की परिस्थितियाँ आती रहीं कि हमारी भावना मूर्त रूप नहीं ले सकी, गत वर्ष भी हमने मैं तो चाहता हूँ कि स्व. उपाध्यायश्री की साहित्यिक प्रतिभा बहुत ही श्रम किया था। पर हम सोच रहे थे संभव है हमें इस वर्ष पर स्वयं शोधपूर्ण प्रबंध लिख कर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि लाभ मिल जाए पर चद्दर समारोह के बाद गुरुदेवश्री अत्यधिक प्रस्तुत कर सकूँ। साथ ही जिज्ञासु शोधार्थियों को प्रेरित कर रुग्ण हो गए। किसी को भी यह कल्पना नहीं थी कि गुरुदेवश्री साहित्य में उनके योगदान के विविध पक्षों का सम्यक् विश्लेषण इतने जल्दी हमें छोड़कर इस संसार से विदा हो जायेंगे। सभी की प्रस्तुत करवा कर अपने पुनीत कर्तव्य का अंशतः पालन कर अपने यही कल्पना थी कि गुरुदेवश्री अभी लम्बे समय तक विराजेंगे और को धन्य कर सकूँ। उनकी विमल छत्रछाया में हम अपना आध्यात्मिक विकास करते समस्त जैन समाज उस यशस्वी, मनस्वी एवं तेजस्वी संतश्रेष्ठ रहेंगे पर क्रूरकाल ने असमय में ही गुरुदेवश्री को हमारे से छीन की स्मृति को संजोकर अपने आपको धन्य अनुभव कर रहा है। लिया। श्रमणसंघ के संगठन में उपाध्यायश्री ने जो मौलिक योगदान दिया __जिस महान आत्मा की यहाँ पर चाह होती है लगता है कि वह चिरस्मरणीय रहेगा और फिर अपनी प्रबुद्ध शिष्य मण्डली के उनकी वहां पर भी चाह होती है, गुरुदेवश्री जब तक विराजे, वहां सतत् निर्माण एवं विकास की वह अथक और अनवरत साधना तक वे पूर्ण यशस्वी जीवन जीए। उन्होंने अपने पवित्र चारित्र की जसने श्रमणसंघ के वर्तमान साहित्यमनीषी आचार्यश्री देवेन्द्रमुनि सौरभ से जन-जन को प्रभावित किया, चारित्र उनके जीवन की जी एवं प्रखरवक्ता श्री गणेशमुनि जी जैसे प्रतिभासंपन्न तेजस्वी संतों । अपार संपदा थी, जप साधना और ध्यान साधना उनकी अद्भुत त DD0004 Editation tema 6000 Povale Fersonal se da 2006 20 292660000wjalrlengidiyorg 2600:0980P.GOO.Good
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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