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________________ 1 श्रद्धा का लहराता समन्दर १२३ थी। गुरुदेवश्री का संबंध नान्देशमा के साथ रहा है, नान्देशमा की सामर्थ्य है कि हम उस महागुरु के गुणों को अंकित कर सकें, पर धरती के साथ रहा है, इसलिए हमें यह कहते हुए अपार हर्ष है। यह सत्य है कि गुरुदेवश्री की असीम कृपा सदा हमारे पर रही, Dapoor कि हमारी जन्मभूमि में जन्मे हुए लाड़ले ने मेवाड़ की यशस्वी जब भी मैं सेवा में पहुँचता गुरुदेवश्री के मंगलमय आशीर्वाद को गौरव गरिमा में अभिवृद्धि की। वे प्रज्ज्वलित दीपक की तरह पाकर मैं अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव करने लगता। आज जन-जन को प्रकाश देते रहे, आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं। गुरुदेवश्री की भौतिक देह हमारे बीच नहीं है किन्तु वे यशःशरीर किन्तु उनका यशः शरीर हम सभी को सदा-सर्वदा प्रेरणा प्रदान से जीवित हैं और सदा ही उनका यशःशरीर हमारे लिए प्रेरणा का करेगा, यही गुरुदेवश्री के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि। पावन प्रतीक रहेगा। गुरुदेवश्री के चरणों में सादर भावांजलि समर्पित करता हूँ। प्रेरणा के पावन प्रतीक भावभीनी श्रद्धार्चना ! -डालचंद परमार (-पूर्व अध्यक्ष श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय, उदयपुर) -ताराचंद परमार भारतीय संस्कृति में व्यक्ति पूजा का महत्व नहीं है किन्तु पंचमकाल में भरतक्षेत्र में अनेक विमल विभूतियाँ हुईं हैं l गुणपूजा का महत्व रहा है जो विशिष्ट गुणवान व्यक्ति होते हैं, वे | जिन्होंने जिनशासन की महिमा में चार चांद लगाये हैं, उन ही व्यक्ति जन-जन के आस्था के केन्द्र होते हैं, इसलिए तो कवि ने महापुरुषों की पावन परम्परा में परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य कहा है कि उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का नाम आदर के साथ लिया “मानव की पूजा कौन करे, मानवता पूजी जाती है, जा सकता है। उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी म. सा. शान्त, दान्त, गंभीर और सौम्य प्रकृति के धनी संत थे। विहार क्षेत्र उनका बहुत साधक की पूजा कौन करे, साधकता पूजी जाती है।" ही विशाल रहा, कहाँ तमिलनाडु, कहां कर्नाटक, कहाँ आन्ध्र, कहां परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय पू. गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी महाराष्ट्र, कहाँ गुजरात, कहाँ म. प्र., कहाँ राजस्थान, कहाँ म. अनुपम व्यक्तित्व के धनी थे, उनके महान् व्यक्तित्व के दर्शन हरियाणा, कहाँ उ. प्र., कहाँ दिल्ली सभी अंचलों में उन्होंने पैदल करने का मुझे बहुत ही लघुवय में अवसर प्राप्त हुआ क्योंकि मेरे परिभ्रमण कर जन-जन के मन में श्रद्धा के दीप प्रज्ज्वलित किए। पूज्य पिताश्री सेठ नाथूलाल जी सा. परमार गुरुदेवश्री के अनन्यतम जहाँ भी गुरुदेवश्री पधारे, उनके त्याग, तपस्या और साधना भक्तों में से थे, उनके जीवन के कण-कण में, मन के अणु-अणु में के प्रति जनमानस श्रद्धानत रहा। उनके ध्यान के पश्चात् दिए जाने गुरु भक्ति रमी हुई थी। गुरुदेवश्री का सन् १९३८ में हमारे गांव के वाले मंगलपाठ का तो अपूर्व ही प्रभाव था। हजारों लोग उनके सन्निकट कम्बोल गांव में वर्षावास हुआ, जो लगभग एक मंगलपाठ को श्रवण कर आधि-व्याधि और उपाधि से मुक्त होकर किलोमीटर दूर था। प्रतिदिन गुरु दर्शनों के लिए हम सपरिवार उस समाधि को प्राप्त करते रहे। वर्षावास में पहुँचते रहे, उस वर्षावास में गुरुदेवश्री और बड़े गुरुदेवश्री ताराचंद्र जी म. सा. ये दोनों ठाणा ही विराज रहे थे। गुरुदेवश्री के दर्शन बहुत ही लघुवय में ही किए। उस समय मैं भी छोटी उम्र का ही था और गुरुदेवश्री भी छोटी उम्र के ही थे। गुरुदेवश्री जब रुग्ण हो गए तो हमारे पूज्य पिताश्री और मुझे हमारे ज्येष्ठ आदरणीय नाथूलाल जी सा. परमार गुरुदेवश्री के सेवा का अवसर मिला। पिताश्री के साथ मैं गुरुदेवश्री के समय परम भक्तों में से थे। उनकी भक्ति गजब की थी जिसके फलस्वरूप समय पर दर्शन के लिए पहुँचता रहा। सन् १९६६ में गुरुदेवश्री का ही सेरा प्रान्त में गुरु भक्ति पल्लवित और पुष्पित हुई। सेठ पदराड़ा चातुर्मास हुआ, हमारी जन्मभूमि होने के नाते चार महीने नाथूलाल जी सा. के कारण ही हमारे नन्हें से गांव पदराड़ा में 6806 तक हमें सेवा का सुनहरा अवसर मिला। उस समय पिताश्री का 1 गुरुदेवश्री के चातुर्मास का लाभ प्राप्त हुआ सन् १९६६ का। स्वर्गवास हो गया। पिताश्री के पास जो पुस्तकालय था, वह हमने गुरुदेवश्री का वर्षावास जब पदराड़ा में हुआ तो संघ में अपूर्व श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय, पदराड़ा को समर्पित किया। जब उत्साह का संचार हो गया, हम अपने आपको सौभाग्यशाली मानने उदयपुर में श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय की स्थापना हुई तो वह लगे और हमें विश्वास हो गया कि हमारे गुरुदेव ग्रामों को भी 3 ग्रंथालय उदयपुर आ गया। जब श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय की महत्व देते हैं। जब भी गुरुदेवश्री का मेवाड़ में पदार्पण होता जब स्थापना हुई उस समय मुझे अध्यक्ष बनाया गया और मैं वर्षों तक । पदराड़ा को अवश्य ही लाभ मिलता रहा है। गुरुदेवश्री की अपार इस पद पर रहकर संघ समुत्कर्ष हेतु प्रयास करता रहा। कृपा हमारे पर रही है, हम उनके गुणों का स्मरण कर श्रद्धा से गुरुदेवश्री क्या थे? उनकी महिमा और गरिमा का उत्कीर्तन नत हैं उनके गुण हमें सदा-सदा आगे बढ़ने की पावन प्रेरणा देते करना मेरी लेखनी के परे की बात है, हमारी लेखनी में कहां रहेंगे, यही गुरुदेवश्री के चरणों में भावभीनी श्रद्धार्चना। aanerduastistatensistaka0 00.0.00 Sinw.jamglady DDDDHPrate A Pelocade s000 50000009:00RUL 25000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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