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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर गुरुदेवश्री का ४२ घण्टे का शानदार चौवीहार संथारा आया। इस संथारे में गुरुदेवश्री की स्थिति को देखकर और उनकी सौम्य मुख मुद्रा को देखकर हमें लगा कि गुरुदेवश्री का यह संथारा कितना महानू है, न उन्होंने हाथ पैर हिलाए और न किसी प्रकार की कोई चेष्टा की उनके मुखारबिन्द पर अपूर्व तेज झलक रहा था ३ अप्रेल को ४२ घण्टे के संधारे के पश्चात् उनका स्वर्गवास हुआ और पाँच अप्रेल को गुरुदेवश्री का श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय में ही अग्निसंस्कार हुआ। गुरुदेवश्री के संथारे के अवसर पर और अंतिम संस्कार के समय हमें उम्मीद नहीं थी कि इतना जनसमुदाय पुनः उपस्थित होगा, किन्तु गुरुदेवश्री के स्वर्गवास पर भी इतनी जनमेदिनी उपस्थित हुई कि जिसे देखकर हम सभी आश्चर्यचकित हो गए। तीन चार दिन पहले चद्दर समारोह से लोग गए थे, कहाँ बम्बई, कहाँ दिल्ली, कहाँ औरंगाबाद, कहाँ बम्बई, कहाँ पूना, दूर-दूर के अंचलों से प्लेन ट्रेन और अपने कार आदि के साधनों से हजारों लोग उदयपुर पहुँच गए और निर्वाण यात्रा के अन्दर लाखों लोगों की उपस्थिति उदयपुर के इतिहास में एक नई घटना थी। लाखों लोग गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु और अंतिम श्रद्धा सुमन समर्पित करने हेतु उमड़ रहे थे। धन्य है गुरुदेव, आपकी अंतिम सेवा का हमें अवसर मिला। आपकी सभी मनोकामना पूर्ण हुईं। आप जैसे महान् गुरु को पाकर हमारा हृदय श्रद्धा से नत है। गुरुदेवश्री के चरणों में मेरे और मेरे परिवार की ओर से अनन्त अनन्त श्रद्धा व्यक्त करते हुए अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ। उनकी स्मृति को शत-शत नमन -राजेन्द्र नगावत "जैन" यह एक अनूठा संयोग है कि पुष्कर नामी तीर्थ में गोते लगाकर देवताओं के राजा देवेन्द्र इतने अधिक पुण्यशाली हो उठे कि श्रमणों के एक वृहद् संघ ने उन्हें नेतृत्व प्रदान किया, अपने संघ का आचार्य निरूपित किया। इतना सारगर्भित था उनके जीवन का हर अध्याय कि केवल उपाध्याय विरद में ही गुंफित हो सकता था। वे विद्वत्ता के भार से बोझिल नहीं हुए, वे गहन साधना के बल पर अनेकजनों के आराध्य बने । प्रत्येक को उन्होंने यथोचित सम्मान दिया। जो औरों को सम्मान देता है, निश्चय ही वह भी अभिनन्दनीय हो उठता है । उनके अनमोल जीवन से जैन संस्कृति ही नहीं, ब्राह्मण संस्कृति व साथ ही मानव संस्कृति जीवंत हो उठी। ये किसी उपमा में नहीं बाँधे जा सके, न ही अलंकारों के वे मोहताज रहे। वे बेजोड़ थे, अप्रतिम थे, अनुपम थे। उनकी स्मृति को शत-शत नमन । Jam Education international 926 समाज और संस्कृति के प्रहरी १२१ -डॉ. राजकृष्ण दूगड़ (जोधपुर) राजस्थान की वीर प्रस्विनी पुण्य भूमि ने जिस प्रकार शतशः रणबांकुरे वीरों एवं वीरांगनाओं को जन्म दिया है, उसी प्रकार ज्योतिर्मय संत एवं सती रत्नों की अखण्ड परम्परा भी इस पुण्य भूमि को अपनी अमृतवानी से निरन्तर सिंचित करती रही है। ऐसे श्रेष्ठ संतों की परम्परा में शिक्षा, साहित्य एवं संस्कृति के पुरोधा अध्यात्मयोगी राजस्थान केसरी स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी का स्थान अग्रगण्य है। करीब चालीस वर्ष पूर्व उदयपुर चातुर्मास के अवसर पर मुझे उपाध्यायश्री के दर्शनों का सर्वप्रथम सौभाग्य प्राप्त हुआ था। तपःपूत गौरवर्णी उन्नत देह, उन्नत प्रशस्त भाल, विशाल वक्षस्थल, लम्बा चौड़ा सुडौल शरीर, मुस्कराती हुई प्रसन्न भावमुद्रा, देखते ही मैं मंत्रमुग्ध होकर उनके श्रीचरणों में नत हो गया। तब तक मैं साधु-संतों की सेवा का बहुत कम लाभ उठाया करता था परन्तु कैसा भी नीरस व्यक्ति क्यों न हो ऐसे तेजस्वी संत का प्रभाव तो निश्चित रूप से उसके मानस को अपूर्व आल्हाद से आपूरित कर ही देता है। तब उनकी सुयोग्य, मेधावी शिष्य मण्डली को साहित्य के अध्ययन में सहयोग देने के पुनीत कार्य के संदर्भ में महीनों तक उनकी सेवा में उपस्थित होने का सौभाग्य प्राप्त कर सचमुच मैं धन्य हो गया। फिर तो यह सुयोग मुझे बराबर मिलता रहा। पूजनीय उपाध्यायश्री की विहार यात्राओं का अजस्र स्रोत स्वर्गवास पर्यन्त बराबर चलता रहा। एक ग्राम से दूसरे ग्राम, एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त आपश्री अपनी शिष्य मण्डली के साथ स्वर्गवास पर्यन्त बराबर आते जाते रहे राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश आदि प्रान्तों के विविध अंचल आपकी मधुरवाणी एवं सिंहगर्जना से गूँजते रहे। जोधपुर अंचल पर तो आपकी विशेष कृपा दृष्टि रही। और मुझे उनके दर्शन एवं अमृत वचनों के श्रवण का लाभ बराबर प्राप्त होता रहा । और पिछले वर्ष गढ़सिवाना में तो उस दिव्य विभूति के दर्शन कर मैं अभिभूत ही हो गया। अस्वस्थ होने के बावजूद भी उनके शान्त मुखमण्डल से बरसता आध्यात्मिक तेज, संयत-शीतल वाणी में नपातुला प्रभावशाली आशीर्बचन, ऐसा जैसे मेघों का मन्द मन्द गर्जन हो रहा हो, उपस्थित जनसमुदाय को मंत्रमुग्ध कर देता था। अस्वस्थ होने पर भी अपने शरीर के प्रति जिसकी तटस्थता हो उसके व्यक्तित्व की सहजता कभी विलीन नहीं हो सकती है। अस्तु, श्रद्धा आपूरित जनसमूह उनके श्रीचरणों में मस्तक झुकाता रहा और वे स्नेहाभिसिक्त शीतल शब्दों में उन्हें आशीर्वचन प्रदान करते रहे। कैसा निस्पृह, भव्य एवं उल्लासपूर्ण व्यक्तित्व था उनका । फिर तो उनके अन्तिम दर्शन उनके सुयोग्य एवं तेजस्वी, साहित्यमनीषी वर्तमान श्रमणसंघ के यशस्वी आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि Por Private & Personal Use 000 www.rainelibrary.org DEDO
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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