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________________ 01 १२० GDBLU SalRR8000 1-0905 2004 1099Read उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 2080P जल दोपहर १२ बजे की मंगलीक ने जादू-सा प्रभाव किया। आगरा व्यवसाय हेतु मेरे पूज्य पिताश्री उदयपुर पधार गए और अध्यात्म, त्याग-तपस्या तथा सेवा के लिए भी प्रसिद्ध है। धर्म का । उदयपुर की सामाजिक और साम्प्रदायिकवाद की स्थिति को देखकर ठाठ लग गया। श्री पुष्करमुनि गद्गद् थे। हमारे मन में एक जागृति आई और हमने बहुत ही प्रयास करके Sayapal एक दिन शुभ अवसर देखकर आप श्री रत्नचन्द्र जी म. का । श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय की स्थापना की। श्री तारक गुरु जैन BB सुन्दर समाधि-स्थल देखने को गए, मैं आपके साथ था। वहाँ का । ग्रंथालय का भवन बनाने हेतु मैंने कठिन श्रम किया पर गुरुदेवश्री त रमणीक तथा शान्त वातावरण देखकर आप बड़े प्रभावित हुए और सदा ही निस्पृह रहे, क्योंकि उनके जीवन के कण-कण में तो Joon मन ही मन कुछ विचार कर इधर-उधर देखा, तत्पश्चात् आप निस्पृहता रमी ही हुई थी। उन्होंने कभी भी सक्रिय भाग नहीं लिया, 6 8 ध्यान पर बैठ गए। काफी समय बाद जब आप ध्यान से उठे तो यह है गुरुदेवश्री की असीम निस्पृहता का ज्वलन्त उदाहरण। मन बड़ा प्रसन्न था। महायोगी की महिमा कोई योगी ही जान सकता। गुरुदेवश्री के दो वर्षावास उदयपुर में सन् १९५७ और है। कुछ समय बाद वहाँ से जैन स्थानक आ गए। १९८० में हुए। इन दोनों वर्षावासों में मुझे बहुत ही निकटता से 886 उन दिनों शाम का प्रतिक्रमण मैं आपके सान्निध्य में ही किया। सेवा का अवसर मिला तथा मेरे निवास स्थान “आकाशदीप" में 90920 करता था। साहित्यिक होने के कारण उनसे खुलकर चर्चा होती। भी गुरुदेवश्री के अनेक बार विराजने से हमारी श्रद्धा में अपार PRODDOD दूसरे दिन आपने खचाखच भरे व्याख्यान हाल में श्री रलचन्द्र जी अभिवृद्धि हुई। गुरुदेवश्री की मेरे परिवार पर असीम कृपा रही। DOODम. की महिमा का गुणगान एक सुन्दर भजन के रूप में गाकर आज हम जो कुछ भी हैं, उसी गुरु की कृपा का सुफल है। सुनाया। श्रोतागण मन्त्रमुग्ध थे, आज भी वह भजन गाया जाता है। सन् १९९३ में श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्य श्री PDO.DA जहाँ तक मैं समझता हूँ कि यह आपके त्याग, तपस्या, संयमी देवेन्द्रमुनिजी म. का चद्दर समारोह उदयपुर में हुआ। इस आयोजन जीवन तथा ध्यान का ही फल है कि आज श्री देवेन्द्र मुनि की प्रार्थना और स्वीकृति हेतु हम गुरुदेवश्री की सेवा में गढ़सिवाना HDay"आचार्य" पद पर विराजमान हैं। धन्य हैं ऐसे गुरु। पहुँचे और हमारे शिष्टमण्डल ने गुरुदेवश्री के चरणों में भावभीनी TE D आज पुष्कर मुनि जी हमारे बीच नहीं हैं। उनकी मधुर । प्रार्थना की कि, गुरुदेव! देवेन्द्रमुनिजी की जन्म भूमि भी उदयपुर है 39000 स्मृतियाँ, संयमी जीवन तथा कर्तव्यनिष्ठा का पाठ हमारे जीवन को तो यह चद्दर समारोह का लाभ उदयपुर को मिले, ऐसी हमारी : नया प्रकाश देगा। श्रद्धांजलि के रूप में उस महान् संत को मैं अपने भावभीनी प्रार्थना है। गुरुदेवश्री ने स्वीकृति प्रदान की और वे dege श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ और शासनदेव से आपकी आत्मा की उदयपुर दिनांक १ मार्च, ९३ को पधारे। गुरुदेवश्री अहिंसापुरी से laodeos शान्ति के लिए प्रार्थना करता हूँ। विहार कर उदयपुर शहर में पधारे और रास्ते में “आकाशदीप" पड़ता था, मैंने गुरुदेवश्री से प्रार्थना की कि आपश्री कुछ समय वहाँ अनन्त सद्गुणों के पुञ्ज : पर विश्राम करें। मुझे यह लिखते हुए अपार आल्हाद है कि उपाध्याय पूज्य गुरुदेव गुरुदेवश्री ने हमारी प्रार्थना को स्वीकार किया और लगभग आधा घण्टे तक वहाँ पर विराजे। जिस दिन उदयपुर में प्रवेश हुआ, -चुन्नीलाल धर्मावत । स्वास्थ्य पूर्ण स्वस्थ था। दिनांक ५ मार्च, १९९३ को उदयपुर सिटी (कोषाध्यक्ष : श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर) से आपश्री विहार कर श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय में पधारे। गुरुदेवश्री स्वस्थ थे किन्तु २८ मार्च, १९९३ को चद्दर समारोह गुरु की गौरव गरिमा का वर्णन करना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए गुरुदेवश्री के मंगलमय आशीर्वाद से सानंद संपन्न हुआ। हमें जितनी 0 सम्भव नहीं। अनेक कलम कलाधर महामनीषी भी गुरु के गुणों का कल्पना नहीं थी, उससे अधिक भारत के विविध अंचलों से पूर्ण वर्णन करने में अक्षम रहे, फिर मेरे जैसा व्यक्ति पूर्ण रूप से श्रद्धालुगण उदयपुर पहुंचे और हमें चतुर्विध संघ के सेवा करने का 8 . किस प्रकार वर्णन कर सकता है। गुरु के गुण अनन्त हैं, अनन्त गुणों का वर्णन करना इस तुच्छ लेखनी से संभव नहीं है। सौभाग्य मिला। ऐतिहासिक चादर समारोह संपन्न होने के पश्चात् P OP बाल्यकाल से ही गुरुदेवश्री के दर्शनों का सौभाग्य मुझे मिलता रहा गुरुदेवश्री का स्वास्थ्य अस्वस्थ होता चला गया। अनेक उपचार 200000.00 साल है, मेरी जन्मभूमि बाघपुरा है जो अरावली की पहाड़ियों से घिरा किए गए किन्तु स्वास्थ्य ठीक होने के बजाए अधिक व्याधि से 2000 हुआ है, जहाँ पर पहले सड़कों का साधन भी नहीं था किन्तु ग्रसित हो रहा था और गुरुदेवश्री को तो यह अनुभव हो ही चुका OGEORG 8 गुरुदेव, उन विकट घाटियों को पार करते हुए वहाँ पर पधारते थे। था कि अब मेरा लम्बा समय नहीं है और उन्होंने अपने मुखारबिन्द परम्परा से गुरुदेवों की असीम कृपा बाघपुरा पर रही वहीं पर मैंने से आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी म. को कहा कि मुझे संथारा करा दें 833 बड़े गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. से मैंने सम्यक्त्व दीक्षा । और आचार्यश्री ने गुरुदेव को संथारा कराया। हम सभी संघ वाले 22 ग्रहण की थी। उपस्थित थे। Plan Polication international or RADH 9 00 as Rivate A Personal use Only SEARTPATRA
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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