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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर समाज की बहुमूल्य निधि हैं। आपका बाहरी आचार तथा आंतरिक विचारधाराएँ दोनों ही भगवान् महावीर के उपदेशानुकूल हैं। गुरुदेव से अत्यन्त निकट सम्पर्क में आने का मेरा यह पहला ही अवसर है। आपके दर्शन कर अपूर्व आत्मशांति की प्राप्ति होती है। गुरुदेव जैसे ऊँचे तपस्वी हैं वैसे ही उच्चकोटि के विद्वान भी हैं। जैन सिद्धान्तों के समस्त रहस्य आपकी जिह्वा के अग्र भाग पर स्थित हैं। भारत के विविध अंचलों में भ्रमण कर आपने जैन समाज के जीवन में जैनत्व उतारने के लिए कठोर श्रम किया है। आपके हृदय में करुणा का सागर हिलोरें लेता है। आप जिस किसी को भी दुःखी देखते हैं उसके कष्टों को दूर करने के लिए व्यग्र हो उठते हैं। दूसरे के तापों से आपका मक्खन के समान कोमल हृदय द्रवित हो जाता है। एक बार आपश्री रायपुर में वर्षावास पूर्ण कर बिलाड़ा की ओर पदार्पण कर रहे थे कि मार्ग में बाण गंगा के निकट शिकारियों द्वारा पशुपक्षियों का क्रूर वध देखकर आपकी अन्तरात्मा रो उठी। आपने शिकारियों को मधुर वचनों में समझाया कि प्राणियों की सताना महापाप है। शिकारियों पर आपकी वाणी का अद्भुत प्रभाव पड़ा। उन्होंने सदा-सदा के लिए शिकार का त्याग कर दिया। एक बार आपने बम्बई और पूना के बीच लोनवाला के निकट काली गुफाओं में स्थित देवी मंदिर में आदिवासियों के द्वारा किए जाने वाले बलिदान को रोकने में सफलता प्राप्त की थी। बलिदान करने वाले आदिवासियों ने आपका कड़ा विरोध किया। आपने कहा कि आप लोग मेरा बलिदान कर सकते हैं परन्तु मैं यहाँ किसी अन्य जीव का बलिदान नहीं होने दूँगा। अन्त में आदिवासियों का हृदय परिवर्तन हो गया और उस बकरे का अभयदान देकर उन्होंने भविष्य में कभी बलिदान न करने को प्रतिज्ञा की आप हमेशा अपने उपदेशों में भक्तों को दयाव्रत धारण करने की प्रेरणा देते रहते हैं। सन् १९७५ में पूना में आपका वर्षावास था, उस समय पूना में बहुत तेज वर्षा हुई। झोंपड़पट्टी में रहने वाले बेघरबार हो गए। पूज्य गुरुदेव ने शौच के लिए जंगल जाते हुए उनकी दयनीय स्थिति देखी। उनका दयालु हृदय द्रवित हो उठा। लौटकर आपने अपने प्रवचन में उन व्यक्तियों की कारुणिक स्थिति का मार्मिक चित्रण किया। उसी समय वहाँ पर श्री पुष्कर गुरु सहायता संस्थान की स्थापना हुई। और उस संस्था के द्वारा हजारों व्यक्तियों को सहायता प्रदान की गई। आजकल भी यह संस्था दीन-दुखियों की पर्याप्त सहायता कर रही है। आप कहीं भी सहायता की आवश्यकता अनुभव करते तुरन्त उनकी पूर्ति की प्रेरणा प्रदान करते। आपने बम्बई, आंध्रप्रदेश, राखी (राजस्थान) आदि स्थानों पर भी दुखियों के दुःख निवारण पर धार्मिक संस्थाएँ स्थापित करायी। Jain Education malignals ९१ उत्कृष्ट साधक थे -अशोक (बाबूशेठ) बोरा ( युवा विभाग अध्यक्ष : अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेन्स) उपाध्यायश्री ने जैसा बोया वैसा पाया। अपने गुरु के प्रति जो अनन्य आस्था उन्होंने प्रकट की वही उनके शिष्यों के द्वारा लौटकर उन्हें प्राप्त हुई। जिस ज्ञान के बीज को उन्होंने रोपित किया वह विशाल वट बनकर सबको छाया प्रदान कर रहा है। उनके शिष्य आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी म. ने तो उनके अगाध ज्ञान को आत्मसात किया है। उपाध्याय प्रवर की युवकों के प्रति बड़ी श्रेष्ठ भावना थी । युवक वर्ग धर्म के प्रति विशेष श्रद्धा रखते हुए जीवन में उच्चतम चारित्र्य को वहन करें यह उनकी भावना थी। उपाध्याय प्रवर एक उत्कृष्ट साधक थे। कितनी भी व्यस्तता हो वे अपनी समाधि के लिए समय निकाल ही लेते। एक नियत समय पर सर्व कार्य छोड़कर वे ध्यानस्थ होते और उस एक घण्टे के ध्यान के उपरान्त वे असीम शक्ति से भरकर मांगलिक प्रदान करते तो श्रद्धालुजन अभिभूत हो उठते । वे समर्थ साधक थे -श्री दलसुख भाई मालवणिया जानकर अत्यन्त दुःख हुआ कि पूज्यपाद उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. का अवसान हो गया है। उनका अवसान हो नहीं सकता है, आचार्यश्री में उनकी सारी शक्ति मौजूद है। वे अत्यन्त सरल, मृदु, विद्वान साधक थे, उनके अवसान से कई लोगों को दुःख होना स्वाभाविक है। उनकी उदारता अपूर्व है, उसका उदाहरण मिल नहीं सकता, स्वयं समर्थ साधक विद्वान प्रभावी होते हुए भी अपने शिष्य को आचार्य बना दिया यह अन्यत्र दुर्लभ है। मेरा स्वास्थ्य अब ऐसा नहीं रहा है कि मैं कुछ नया लिख सकूँ, इसी पत्र का उपयोग करें। श्रद्धा सुमन -जसराज चौपड़ा (न्यायाधीश राजस्थान हाईकोर्ट)* उपाध्यायप्रवर श्रद्धेय स्व. श्री पुष्करमुनिजी महाराज मात्र एक वर्चस्वशील व्यक्तित्व ही नहीं अपने आप में एक संस्था थे उनके विराट् व्यक्तित्व का अंकेक्षण मात्र इस बात से कर दिया जाना चाहिए कि उनके द्वारा दीक्षित एवं शिक्षित शिष्य आज श्रद्धास्पद देवेन्द्र मुनि के रूप में श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्य के रूप में हमें उपलब्ध हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.or
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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