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________________ 26/ FOAD 0.00 200000 3606 50000 03.05 92.90.9ADO ३७४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । में समायी हुई थी। आध्यात्मिकता उनके जीवन की संगिनी थी। उतने ही थे। आपने राजस्थान में ही नहीं, भारत के अनेक प्रान्तों उपाध्यायश्री ने अपने उपदेशों में केवल उन्हीं बातों को कहा। में अपने सद्गुणों की सौरभ महकायी है और उस सौरभ का पान जिनका उन्होंने स्वयं अनुभव किया और अपने आचरण में उतारा।। अनेक आत्माओं ने किया है। आप अमित आत्मबली और कुशल केवल समाज के लिए ही नहीं अपितु मानव-मात्र के एक । कर्णधार भी थे। कृपासिन्धु! आपके सद्गुणों की गाथा जितनी गाऊँ अनुकरणीय आदर्श संत रत्न थे। उतनी कम है। चारित्रात्मा सन्तरत्न महामहिम संयम क्षेत्र के सफल सेना गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु जगत में, नायक पूज्य उपाध्यायप्रवर श्री उदयपुर की पावन धरती तारक गुरु जीवन के सच्चे ईश। गुरु ग्रन्थालय में संलेखना संथारे सहित स्वर्ग गमन कर गये। उनके गुरु चरण में श्रद्धानत हो, चरणों में शांता की शत-शत मौन भावांजलि समर्पण। नित्य नमाऊँ सादर शीष॥ धन्य-धन्य वे साधक जग में जो जीवन चमकाते हैं। भगवन्! मैं चादर समारोह पर उदयपुर आई उस समय आप जन-जन के मन में जो अपनी पावन याद बसाते हैं। थोड़े अस्वस्थ थे फिर भी अच्छी तरह से बोले और साता पूछी किन्तु पता नहीं था कि यह देदीप्यमान मूर्ति कुछ दिनों में ही आँखों ज्ञान के प्रकाश स्तम्भ से ओझल हो जायगी। जीवन एक यात्रा है, इस यात्रा में कई बार इस प्रकार की अप्रिय घटना घट जाती है। जिसकी कभी कल्पना भी -विदुषी साध्वी श्री लज्जावती जी नहीं होती है, जिनका भास भी नहीं होता किन्तु जब विपरीत कार्य हो जाता है तो सारी अपेक्षाएँ एक क्षण में ढह जाती हैं। क्रूर काल नाम रोशन कर गये, गुणों का न कोई पार है। ने हमारे आपके साथ भी ऐसा ही निष्ठुर उपहास किया जिसकी लेखनी न लिख सके, जो आपका उपकार है। कल्पना भी नहीं की थी कि इस रविवार को चादर समारोह बड़े ही पूज्यनीय गुरुदेव उपाध्याय श्री जी म. सा. वास्तव में आपश्री हर्ष उल्लास के साथ संपन्न हुआ और उस रविवार को उपाध्यायश्री का उपकार अवर्णनीय है तथा आपश्री के असीम गुणों का वर्णन जी इन सैंकड़ों संत-सतियाँजी को बिलखते हुए छोड़कर अचानक करना मेरी बुद्धि के बाहर है। गुरुदेव! आपका हँसता-मुस्कराता आँखों से ओझल हो जायेंगे। किन्तु क्या किया जाय इस कुदरत के चेहरा, स्नेहिल नेत्र, पवित्र भावनाओं से भरा हृदय, समभाव के नियम के सामने सब विवश हैं। आज हमारे हृदय इस अपार वेदना धारक, वाणी में ओज, आत्म-विजयता ऐसे मेरे गुरुदेव उपाध्यायश्री से व्यथित हैं। क्योंकि गुरुदेव! उपाध्याय श्री जी का जीवन जी के दर्शन प्रथम बार मुझे देवास में हुए थे, जब आप इन्दौर का श्रमणसंघ के हेतु सदा सर्वदा समर्पित रहा। वे श्रमणसंघ के एक वर्षावास करके देवास पधारे थे। उस समय आपकी तथा पूज्यनीय जीवन्त और ज्वलन्त प्रतिनिधि थे एवं त्याग और समर्पण के आचार्यश्री जी की अमृतमय वाणी सुनने का स्वर्ण अवसर प्राप्त पावन प्रतीक थे। निर्भीकता की जीती-जागती प्रतिमूर्ति थे। उनके हुआ था। गुरुदेव! वह आपश्री का पावन संदेश आज भी हृदय में हृदय में ज्ञान का अगाध सागर लहलहा रहा था तथा गजब की सुरक्षित है। क्षमता थी उनमें। वे शासन के प्रभाविक चिन्तामणि रत्न के समान थे। उन्होंने अपने जीवन-काल में जिनशासन की प्रभावना की उसे आपके पधारने से देवास में चारों दिशा से भक्तगण उमड़ पड़े मेरी ससीम वाणी व्यक्त नहीं कर सकती। उनका हृदय बड़ा विराट थे और देवास क्षेत्र में मेला-सा लग गया था। गुरुदेव! आपकी एवं विशाल था। उनका मन संकीर्णता से परे था एवं संप्रदाय की पावन स्मृतियाँ शेष रह गईं। घेराबंदी से मुक्त था। संघ और संगठन के परखे हुए सूत्रधार थे। आपके साथ आचार्य भगवन पुण्य जहाज के समान थे जिसका ऐसे गुरुप्रवर हजारों हजार वर्षों में भाग्य से ही मिलते हैं। आपकी आधार लेकर पुण्यवान आत्माएँ भव-सागर पार कर रही हैं। कहनी और करनी एक समान थी, जो जीभ पर था वही जीवन में गुरुदेव! जैसे फूलों की महत्ता उसकी सुगंध से है, दीपक की महत्ता । था। महत्वाकांक्षा के पंक में भी कमल की भाँति निर्लेप थे। सभी के उसके प्रकाश से है वैसे ही मनुष्य की महत्ता उसके सद्गुणों से है।। प्रति उनके अन्तर् मानस में समभाव था और काया-कल्प करने में आपने जैन संस्कृति के गौरव को अक्षुण्ण बनाया और विश्व के अथक प्रयास उन्होंने किया था। उन महामहिम के चरणों में पहुंचने कण-कण को सुगंधित किया। पर मन की व्यथा रोग कष्ट उसी तरह नष्ट हो जाता था जिस जैसे विद्युत् के स्विच से हलका-सा स्पर्श होते ही सारा प्रकार सूर्य के उदित होने पर सघन अन्धकार नष्ट हो जाता है। अंधकार हट जाता है और प्रकाश प्रसरित हो जाता है, उसी प्रकार उनकी मांगलिक में भी ऐसा चमत्कार था कि चिलचिलाती धूप एवं जब आपश्री की वाणी मुखरित होती थी तो ऐसा प्रतीत होता था । कड़कड़ाती ठंड में भी लोग पानी की पूर की तरह चले आते थे, कि सारा सभागार जगमगा रहा है। इतना ही नहीं प्रतिभासंपन्न भी गजब की भीड़ लगती थी। आपश्री की मधुर मीठी वाणी महकते 2000 PREG.000000hr00.00000..00.0.0336.0.26.200000 HOS90000000000000000000055DOODHDEOXODHO G E00000 SODEODOG DOOODOODOOGEOG DESHDO O RDAc000006063-FAGPayate RadiohatoseonePROPO-000000000MADRDIDIO Roarjainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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