SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर संदर्भ में ध्यानयोगी उत्कट साधक उपाध्ययप्रवर परम पूज्यश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. का भी यथा नाम तथा गुण के अनुरूप इस जिनशासन की श्रमण वाटिका में उनका विशिष्ट महत्त्व एवं प्रतापपूर्ण अस्तित्व था । पूज्य गुरुदेव का पावन नाम था पुष्कर मुनि पुष्कर अर्थात् कमल अनुयोगद्वार सूत्र में वर्णित श्रमण जीवन की विभिन्न उपमाओं में से एक "जलरूहसम" कमल फूल के सदृश जिनका जीवन ज्ञान पराग से अभिसिक्त था, जिससे ही वे उपाध्याय पद पर विभूषित हुए। कमल-फूल पानी और पंक के संयोग से उत्पन्न पल्लवित, पुष्पित होकर भी पानी से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार पूज्य उपाध्याय प्रवर का जीवन भी विषय कषाय रूप संसार पंक से निर्लिप्त निसंग था। कमल-फूल की सौरभ और शीतलता से भ्रमर आकृष्ट होकर दौड़े आते एवं रसपान कर गुंजारव करते हैं वैसे ही उपाध्याय प्रवर के ज्ञान पराग की सौरभ शीतलता पर चतुर्विध संघ रूप भ्रमर भी चरणाम्बुजों में भक्तिगान का गुंजारव करते हुए ज्ञानामृत का पान करते थे। कमल-फूल की सुगंध स्वतः ही चारों दिशा में फैलती है वैसे ही पूज्य उपाध्यायश्री भी सत्य, संयम, शील आदि अनेक गुणों सुगंध से ओत-प्रोत थे और वह गंध चहुँदिशि में प्रसारित थी। कमल-फूल दिनकर के उदित होते ही महक उठते, उसी प्रकार ज्ञानी-ध्यानी, त्यागी, तपस्वी गुणीजनों को देखते ही उपाध्यायश्री का हृदय कमल खिल उठता तथा कमल-फूल की प्रफुल्लता के समान तन-मन नयन आनन्दित हो जाते थे व सदैव ही पुलकित रहते थे। कमल-फूल सदा सूर्य के सन्मुख रहता उसी प्रकार उपाध्यायप्रवर भी आगम विहारी एवं जिनेश्वरदेव की आज्ञानुरूप ही विचरणशील थे। पुण्डरीक कमल उज्ज्वल एवं धवलिया से युक्त होता वैसे ही उपाध्यायप्रवर का हृदय कमल भी ध्यानयोग की साधना से समन्वित उज्ज्वल, समुज्ज्वल, सरल व निर्मल था। इस प्रकार उनका जीवन अनेक विशिष्ट विशेषताओं से ओत-प्रोत था जिनका वर्णन करना ठीक उसी प्रकार होगा- "सब सागरमसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय" फिर भी भक्तिवशात् उनके जीवन की समग्र विशेषताओं का चित्रण संक्षेप में इस प्रकार हो सकता है संयमी जीवन के तीन लक्ष्य निर्धारित किए जो साधक- जीवन के लिए परिपूर्ण थे प्रथम था संयम साधना, द्वितीय था ज्ञान आराधना एवं तृतीय था गुरुसेवा । संयम साधना के रूप में चरण सत्तरी स्वरूप गुणसित्तर वर्ष तक जिनकी संयम साधना निर्मल रही एवं साधना मंदिर का स्वर्ण DO Jain Education Infernational ७३ कलश समाधि भाव में स्थिर बने। ज्ञान आराधना के रूप में वे अंग- उपांग सूत्र स्वमत परमत के गहन ज्ञाता थे। निर्मल ज्ञान रूपी किरणों से अज्ञान अन्धकार को नष्ट करने वाले श्रमणसंघ रूप गगन में चमकते हुए भानु उपाध्याय पद पर आसीन हुए तथा साहित्य की विविध विधाओं में उल्लेखनीय एवं मूल्यवान ग्रन्थों की सर्जना की। उनमें से जैन कथाओं का अपना अलग ही महत्त्व है। वास्तव में वे जहाँ एक साधक थे तो दूसरी और सर्जक भी थे। साहित्य और साधना का यह युगपद समन्वय इनके व्यक्तित्व और कृतित्त्व में इक्षुखंड में रस की भाँति समाया हुआ था जो हम सबके लिए प्रेरणास्पद रहा और है। गुरुसेवा के रूप में वे नन्दीषेणमुनि की भाँति थे। ऐसे अलौकिक महिमामंडित उपाध्यायप्रवर का स्वर्गारोहण जिनशासन की ऐसी क्षति हुई जो भुलाये भूली नहीं जा सकती। उनका ज्योतिर्मय व्यक्तित्व और चेतना शीलकृतित्व शब्दातीत है एवं प्रेरणास्पद है। उनकी आत्मा सदा शाश्वत सुखों की उपलब्धि में सदा सर्वदा समुद्यत रहे और उनके गुणों का अचिन्त्य प्रभाव साधकों के लिए सम्बल रूप रहे इसी परम आस्था के साथ हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित होवे। संयम पथ के महाधनी - बा. ब्र. साध्वी : शांता कुंवर जी म. हाय काल तू है गजब कीना अति अन्याय । पुष्कर गुरु को ले गया जो था जग सुखदाय ॥ उद्यान में हजारों हजार पुष्प खिलते हैं। सभी का रंग-रूप व सौन्दर्य पृथक्-पृथक् होता है। लेकिन जिस फूल की सुगन्ध सबसे अधिक सुहावनी व लुभावनी होती है, जिसका सौन्दर्य सबसे अलग होता है तो दर्शकों का ध्यान उसी की ओर आकृष्ट होता है। उसी प्रकार संसार रूपी उद्यान में जिस मनुष्य में अद्भुत गुण-सौरभ, परोपकार की माधुर्यता और शील-सदाचार का सौन्दर्य कुछ पृथक् व निराला होता है तो संसार का प्रत्येक व्यक्ति उसी की ओर आकृष्ट होता है। उसी के अनुरूप पूज्य प्रवर उपाध्याय संयम पथ के महाधनी थे। श्री पुष्कर मुनि जी महाराज आगम की भाषा में महुकुम्मे महुपिहाने मद्य कुंभ की भाँति भीतर-बाहर चिर मधुर और णावणीय तुल्लहियया नवनीत के समान कोमल हृदय वाले थे, तेजोमय मुखमण्डल, शांत मुद्रा, प्रशस्त भाल, हृष्ट-पुष्ट देह, गेहुओं रंग, ज्ञान-दर्शन- चारित्र के महाधनी, पारदर्शिनी ज्ञान दृष्टिसंपन्न थे। उपाध्याय पूज्य प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी महाराज समाज की उन दिव्य विभूतियों में से हैं जिन्होंने आत्महित चिन्तन के साथ-साथ परहित की भावनाओं से समाज को बहुत कुछ दिया। उनका हृदय विशाल और लोक कल्याण की भावनाओं से ओत-प्रोत था। सहजता और स्वाभाविकता उपाध्यायश्री के रोम-रोम For Private & Personal Use Only 2000 www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy