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________________ 100500000.htosoतका । ७२ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । मार्ग में कई पत्थर पड़े होते हैं पर सभी के भाग्य परिवर्तित जैन धर्म ने जन्म को भी कल्याण माना है और मृत्यु को भी नहीं होते, एक पत्थर था जिस पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरण कल्याण की संज्ञा दी है, जन्म कल्याण उसका होता है जिनका का स्पर्श हो गया और वह पत्थर अहिल्या के रूप में जीवन्त हो जीवन संयम की साधना से मंडित हो, तप की आराधना से उठा। हमारा जीवन भी उसी अनघड़ पाषाण की तरह संसार की सुशोभित हो और मनोमंथन कर जो जीवन को निखारता हो। परम राह में पड़ा हुआ था, हमारे भाग्य जगे और सद्गुरु के चरणों का । श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का जन्म भी कल्याणमय स्पर्श पाकर हमारा जीवन भी अहिल्या की तरह प्राणवान बन रहा, वे जब तक जीए तब तक साधना की अखण्ड ज्योति से सका। सद्गुरुदेव ने हमारे जीवन में संस्कारों के प्राण फूंक दिए, उनका जीवन जगमगाता रहा। उन्होंने हमारे जीवन का, विचारों का कायाकल्प किया इसलिए हम कैसे भूल सकते हैं आपको। जहाँ पर आप में आचार की कठोरता _गुरुदेवश्री का सम्पूर्ण जीवन निर्धूम अग्नि की तरह था, जिसमें थी वहीं पर आप में विचारों के प्रति सद्भाव भी था। आपके नयन आलोक था किन्तु धुआँ का अभाव था। गुरुदेवश्री प्रेरणा के पावन युगल में विराग की लाली चमकती थी, अलौकिक सौम्यता, संयम स्रोत थे, जो भी उनके चरणों में पहुँचा, उसे वे ज्ञान और ध्यान की धवलता, भावनाओं की विशालता, हृदय की सहृदयता, दृष्टि की प्रेरणा देते। आगम के रहस्य बताते, गुरुदेवश्री का आगमिक की विशालता, व्यवहार में कुशलता और अन्तर् हृदय की मृदुता । ज्ञान बहुत ही गंभीर था। उन्होंने अपने जीवन में आगमों का सहज निहारी जा सकती थी। वस्तुतः आप गुणों के पुंज थे। अनेकों बार परायण किया। जो भी गुरुदेवश्री की आगम की टीकाएँ पढ़ना चाहते, गुरुदेवश्री उन्हें सहर्ष पढ़ाते। पढ़ाने में आपका जीवन अज्ञान रूपी निशा में कौमुदी की तरह चमकता था, आपके हृदय मंदिर में स्नेह, सद्भावना और ज्ञान की वीणा गुरुदेवश्री को बहुत ही आनन्द आता और गुरुदेवश्री से आगम की सुरीली स्वर लहरियाँ झनझनाती थीं। आपके हृदय की पढ़ने में हमें भी बहुत ही आनन्द की अनुभूति होती। गुरुदेवश्री की विशालता समुद्र की गहराई से भी अधिक थी, उस हृदय की । दूसरी विशेषता थी, वे महाज्ञानी थे, किन्तु उनका जीवन अत्यन्त गहराई में मैंने डुबकी लगाकर संयम-सदाचार के रत्न खोजे और | सरल था, छोटी से छोटी साध्वी से भी बात करने में आप कतराते उन रत्नों को पाकर मेरा हृदय आनन्द से झूम उठा, धन्य है प्रभो! नहीं थे, आपके चरणों में बैठकर आध्यात्मिक जीवन के रहस्य कैसे लिखू मैं आपके अनन्त उपकारों की कहानी, जितना-जितना मैं | जानने को मिलते, गुरुदेवश्री जिस प्रकार यशस्वी रूप से जीए, उसी जीवन रूपी समुद्र में गहराई में जाता हूँ, उतना-उतना यह अनुभव प्रकार उन्होंने यशस्वी रूप से अन्तिम समय में संथारा कर एक होता है कि आपके जीवन को शब्दों में बाँधना बहुत ही कठिन है, उज्ज्वल आदर्श उपस्थित किया। संथारा अनेक व्यक्ति करते हैं पर आपका यह विराट रूप, शब्दों में नहीं समाता। गुरुदेवश्री का संथारा बहुत ही अपूर्व था। जैन आगमों में जितना कुछ लिखें मगर, लिखने को शेष रह जाता। “पादपोपगमन" संथारे का वर्णन आता है, पादमोपगमन संथारे में साधक न हाथ हिलाता है, न पैर हिलाता है, जिस प्रकार वृक्ष की उदयपुर में चद्दर समारोह का मंगलमय आयोजन पूर्ण हुआ। टहनी काटने पर स्थिर पड़ी रहती है, अपनी इच्छा से न इधर अनक कमनीय कल्पनाएँ संजोए हुए सभी प्रतीक्षा कर रहे थे कि होती, न उधर होती है, वही स्थिति हमने गुरुदेवश्री की देखी, आपका वरदहस्त सदा-सदा हमारे पर रहेगा पर नियति ने उस महागुरु को हमसे छीनकर अनाथ कर दिया, इसीलिए कवि ने गुरुदेवश्री के चेहरे पर भी उस समय अपूर्व तेज झलक रहा था, कहा है, धन्य हैं ऐसे सद्गुरुदेव को जिन्होंने यशस्वी रूप से जीवन जीया और यशस्वी रूप से ही मृत्यु को वरण किया। परम आराध्य "ऐ मौत ! तुझको भी आखिर नादानी हुई। गुरुदेव के चरणों में अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करती हूँ। फूल तुने वो चुना, जिससे गुलशन की वीरानी हुई।" सद्गुरुदेव के चरणों में कोटि-कोटि वंदन। और श्रद्धा के ये सुमन। साधक और सर्जक ज्योतिर्मय साधक -साध्वी मधुकुंवर -महासती श्री धर्मज्योति जी म. (पूज्य महासती यशकुंवर जी म. की सुशिष्या) (विदुषी महासती श्री शीलकुंवरजी म. की सुशिष्या) इस विराट् विश्व को उपमा की भाषा में कहा जाय तो यह "जिनके जीवन में ज्ञान की खिल रही थी फुलवारी, एक नन्दन वन है, जिसमें अनेक व्यक्ति रूपी सुमन खिलते रहे हैं। उनके चरणों की जाऊँ मैं बार बार बलिहारी। और अपनी मधुर गुण सौरभ से महकते रहे हैं। नन्दनवन में ज्ञान का आगर, गुण का भण्डार था “गुरु पुष्कर" सुविकसित पुष्प विभिन्न कोटि में परिलक्षित होते हैं, जिनकी तुम्हारे पावन पद्मों में पल-पल वन्दना हमारी॥" पहचान अलग-अलग रूप रंग सुगन्ध से मूल्यांकित होती है। इसी तात .GRADIO 90980070720P.60.6060.60025000 Predication trternationa 2 000 S ieraineforary.orgili
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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