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________________ ६६ आपकी प्रतिभा सर्वतोन्मुखी व विश्वजनीन थी। आपका रचित साहित्य भी पांच हजार पृष्ठों से भी अधिक है। कइयों ने आपसे मार्गदर्शन प्राप्त किया है। आपकी महिमा सर्वत्र फैली हुई थी तथा आपके द्वारा कई भव्य जीवों का उद्धार हुआ है। ऐसे उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के पद चिन्हों पर चलकर हम अपने अभ्युदय का मार्ग ढूँढने का प्रयास करें और उपाध्याय जी के जीवन से सच्ची शिक्षा लें तो हमारा कल्याण सहज हो सकता है। मैं अपने हृदय की असीम आस्था के साथ उस महापुरुष के श्री चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करती हूँ। खुश जमालों की याद आती है। बेमिसालों की याद आती है। जाने वाले नहीं आते हैं जाने वालों महापुरुषों की याद आती है । मेरी मानस धरती पर अंकित गुरुदेव ! -साध्वी विजयश्री (एम. ए., जैन सिद्धान्ताचार्या) स्व. उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म. सा. मेरे पारिवारिक धर्मगुरु रहे हैं। मेरे पिताश्री की दादीजी और भुआजी आपकी सम्प्रदाय में दीक्षित हुई, तत्पश्चात् मेरी संसारी दादीजी एवं भुआजी भी आपश्री के ही चरणों में दीक्षित हुई हैं, अतः पीढ़ियों से ही हमारा परिवार आपके प्रति आस्थावान रहा है। हमारी दादीजी एवं भुआजी हमें समय-समय पर गुरुदेव के बाह्य एवं आंतरिक व्यक्तित्व की उज्ज्वल घटनाएँ / कथाएँ एवं साधना संबंधी चमत्कारों को बड़ी रोचक शैली में सुनाया करती थीं, हम बड़े ध्यान से और आश्चर्य से यह सब सुनते, लेकिन फिर अपने अध्ययन और क्रीड़ा में व्यस्त हो जाते, गहराई से कभी उसकी सत्यता पर विचार नहीं करते। Uain Edbastiondhternational विशाल हृदयी गुरुदेव ! पंजाब सिंहनी पूज्या महासती श्री केसर देवीजी म. सा. के पास जब मेरी दीक्षा निश्चित हो गई, उस समय आपश्री का मेवाड़ की वीरांगनाओं की गौरव गाथाओं का आदर्श कायम रखकर संयम मार्ग पर दृढ़ता से बढ़ते रहने का एक विस्तृत शुभ संदेश एवं आशीर्वचन मुझे प्राप्त हुआ, तो मेरा हृदय प्रथम बार आपके प्रति श्रद्धा से भर उठा। उस संदेश में आपकी उदारता, विशालता और आत्म-वत्सलता का संदर्शन कर मुझे एक अलौकिक आनंद की अनुभूति हुई एक तेजोमय महान् व्यक्तित्व का धनी, सद्गुणों का पुंज, मनस्वी संत पुरुष का कल्पना चित्र मेरे हृदय-पट पर स्वर्ण-रेख के समान अंकित हो गया, जो कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। जबकि एक संप्रदाय का व्यक्ति यदि अन्य संप्रदाय में दीक्षित हो जाता है, और उस अवस्था में; जबकि उसके निकट उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ पारिवारिक जन भी उसमें दीक्षित हो, तो ऐसी स्थिति में सांप्रदायिक द्वेष व वैर खड़ा हो जाता है, आपसी मनमुटाव हो जाते हैं। लेकिन गुरुदेव उदार दृष्टिकोण रखने वाले उच्चकोटि के संत थे, वहाँ ऐसी संकीर्ण और तुच्छ भावनाओं को स्थान ही कहाँ ? मुझे ऐसे अपने पारिवारिक धर्मगुरु के प्रति सात्विक गौरव की अनुभूति हुई, और उनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा व आदर का भाव और भी बढ़ गया। सन् १९७५ में जब आप श्री अहमदाबाद का चातुर्मास पूर्ण कर महाराष्ट्र की पुण्यभूमि पूना में पधारे, उस समय पू. केसरदेवी जी म. सा. भी बम्बई का चातुर्मास पूर्ण कर पूना की ओर बढ़े। गुरुदेव का चातुर्मास पूना सादड़ी सदन स्थानक में निश्चित हुआ, और इधर पू. म. श्री का भी कारणवश पूना में साधना सदन स्थानक में चातुर्मास हो गया । यह एक आकस्मिक संयोग ही था, और मेरे लिये तो दीक्षा के पश्चात् यही प्रथम दर्शन थे उस समय मेरे मन-मस्तिष्क में अनेक विकल्प फूलों पर भ्रमरों की भाँति मंडरा रहे थे। मन में अब भी यही विचार आ रहे थे कि गुरुदेव मेरे इधर दीक्षा लेने का कारण पूछेंगे, अथवा अप्रत्यक्ष रूप में मुझे या म. श्री जी को कुछ न कुछ कहेंगे। पर, जब हम वहाँ पहुँचे, तो वे इतने अपनत्व और प्रेम से मिले, कि जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी, संकीर्णता नाम की वहाँ कोई बात ही नहीं थी। मुझे वह श्लोक याद आ गया "अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥" जिसके लिये समस्त वसुधा ही अपनी है, वह उसमें से किसको पराया कहे ? म. श्री जी एवं गुरुदेव दोनों का कारणवश पूना में करीब नौ महीने रुकना हुआ, मैं बराबर उनके दर्शनार्थ दिन में दो बार जाती रही, पर उन्होंने कभी यह प्रसंग नहीं छेड़ा में उनकी महानता के समक्ष सदा-सदा के लिये नत हो गई। यह प्रसंग मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय संस्मरण है, जो कभी भूला नहीं सकती। अखंड- व्यक्तित्व गुरुदेव ! पूना चातुर्मास में पू. श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. ने मुझे अपने साथ लेखन कार्य में जोड़ दिया। यह उनकी महानता थी, कि लेखन-क्रिया से कोसों दूर मुझ जैसी अनगढ़ मूर्ति को उन्होंने तैयार किया, और इसी कारण प्रतिदिन दो चार घंटे के निकट सम्पर्क में मैंने उपाध्याय श्री जी के आंतरिक व्यक्तित्व को भी अच्छी तरह से जाना, देखा व परखा। मैंने देखा, कि वे सच्चे अर्थ में एक संत थे। संत की पहचान बताते हुए एक श्लोक में कहा गया है, कि Private & Personal Use Only) "यथा चित्तं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रिया । चित्ते वाचि क्रियायां च साधुनामेकरूपता ॥" www.jalne.brary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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