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________________ } श्रद्धा का लहराता समन्दरा Face अर्थात् उनके मन में जैसा भाव होता है, वैसा ही वचन से 'बहनो पहनो मतना गहनो बोलते हैं और वचन के अनुसार ही क्रिया करते हैं। क्योंकि पण मानो म्हारो कहनो॥" साधुओं के मन, वचन और क्रिया में एकता होती है, अनेकता इस पंक्ति को कई-कई बार दोहरा देते थे। इस प्रकार अनीति नहीं। की कमाई कभी टिकने वाली नहीं है, उसके लिये आपश्री कई बार यह एकता उनमें प्रतिक्षण देखी जा सकती थी, वे जैसे अंदर यह पंक्ति दोहराते थेमें थे वैसे ही बाहर में। उनके मन, वाणी और कर्म में बहुरूपियापन "आयो केवा ने, वाह-वाह आयो केवा ने। नहीं था, कृत्रिमता और बनावट से वे कोसों दूर थे। जब कभी भी थें अमर नहीं हो रेहवाने, क आयो केवाने। जाओ वे एक ही रूप में मिलेंगे। वही मुस्कुराता चेहरा, वाणी में वही मधुरता और गुरुता, हृदय में वही सहजता, निर्मलता और निश्छलता। कूड़ कपट कर माल कमाई, तिजोरी में राख्यो हो। उनके निकट सम्पर्क में रहकर मैंने एक बात विशेष रूप से कालो धन नहीं रहेला थारे, इन्दिरा भाख्यो हो, उनमें देखी, कि कभी भी, कोई भी, कैसा भी व्यक्ति उनके पास क आयो केहवाने ॥" दर्शन के लिये जाता है, तो वे हर एक का खुशमिजाज से सर्वप्रथम इस प्रकार प्रवचन के मध्य में सब तरह का मसाला डालकर 'आओ पुण्यवान!' या 'पुण्यवान! दया पालो' इन मधुर शब्दों से इस प्रकार प्रस्तुत करते कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो उठते थे। स्वागत करते थे। उनके ये शब्द सुनते ही आगंतुक के मन में एक जपयोगी गुरुदेव ! स्नेह भरी स्थायी छाप अंकित हो जाती थी, वह गुरुदेव को अपने अत्यंत निकट अनुभव करने लगता था। उसके बाद उसकी हर उपाध्याय श्री जी एक जपयोगी साधक श्रेष्ठ: थे, जाप और समस्या का समाधान जिज्ञासा का अंत होने तक पूरी तत्परता से ध्यान में समय के इतने पाबंद थे, कि अपना समय होने पर वे करते थे। व्याख्यान के बीच में भी उठकर चले जाते थे। जब उनसे पूछते 'सुखसाता है, गुरुदेव!' तो उसका भी एक बार मैंने उनसे पूछा-'गुरुदेव! आपको जाप में इतनी रुचि गुरु-गंभीर परन्तु मधुर गिरा से प्रत्युत्तर देते–'सब आनंद मंगल!' कैसे है ? मेरा जाप में उतना मन क्यों नहीं लगता? आप कोई ऐसा उनका यह संक्षिप्त और सारगर्भित उत्तर प्राप्त कर हृदय आनंद से उपाय बताइये, जिससे मेरी भी जाप के प्रति रुचि बढ़े, और मैं भी झूमने लगता था। जाप की साधना करूँ।" वे 'मूडी' नहीं थे, उनका व्यक्तित्व अखंड था, उसके टुकड़े उन्होंने अपना अनुभव सुनाते हुए कहा-"मुझे भी पहले जाप नहीं किये जा सकते। में इतनी रुचि नहीं थी, मेरे दादा गुरु कई-कई घंटे जाप की साधना मैंने देखा, कई बार ऐसे प्रसंग भी आए, जिनमें सामान्य व्यक्ति किया करते थे, और मुझे भी जाप के लिये प्रेरित करते, परन्तु तो घबरा ही जाए, और मैदान छोड़कर भागने की तैयारी करे, मेरी रुचि अध्ययन-अध्यापन में ही अधिक रहती थी। लेकिन ये महामनस्वी कभी घबराए नहीं। दुःखों व कष्टों के एक बार मेरी नेत्र-ज्योति अचानक लुप्त हो गई, चारों ओर झंझावातों से कभी विचलित नहीं हुए। बाहर की सुखद या दुःखद अंधेरा ही अंधेरा छा गया। कुछ भी दिखाई नहीं देता था। रात्रि को किसी भी परिस्थिति से वे प्रभावित न होने के अभ्यस्त थे। बड़ी से | मैं सोया हुआ था, मेरे दादागुरु ज्येष्ठ गुरुदेव ने मुझे दर्शन दिये, बड़ी घटना को भी वे इतनी सहजता से झेल लेते थे, मानो कुछ और दो-तीन बार कहा-उठ! उठ। मैं उठा। उन्होंने मुझे कहा, कि EP905 हुआ ही नहीं। कहीं कोई बात बिगड़ती देखकर वे उसे इस प्रकार | तू जाप कर, सब ठीक हो जाएगा। तेरी सारी परेशानियाँ दूर हो मोड़ दे देते थे, कि विरोधी भी पराजित हो जाता था। कठिन से जाएंगी। कठिन समस्या को वे सहजता से सुलझा देते थे। उस समय से मैंने निरंतर जाप करना प्रारंभ कर दिया। अब प्रवचन-पटु गुरुदेव ! जाप मेरा व्यसन बन गया है। मैं भोजन छोड़ सकता हूँ, पर जाप पूना एवं सिकन्दराबाद के चातुर्मासों में मैंने आपके प्रवचन भी नहीं। मेरा यह जाप 'स्वान्तः सुखाय' है, लेकिन जाप से अनेकों खूब जमकर सुने हैं। आपश्री के प्रवचन तत्त्वों की गहराई को लिये लोगों की आधि-व्याधि नष्ट हो जाती है, उनके शारीरिक, हुए होते हुए भी अत्यन्त सरस, मधुर व प्रभावपूर्ण होते थे। मानसिक व दैविक प्रकोप शान्त हो जाते हैं। यह शब्द-शक्ति का बीच-बीच में ऐसे चुटकले छोड़ते, कि श्रोताओं में हँसी के फव्वारे चमत्कार है। मंत्र में अचिन्त्य शक्ति होती है, उसी के प्रभाव से छूट पड़ते थे। बहनें जब खूब आभूषण पहनकर आतीं, तो वे कई । आस-पास का वातावरण पवित्र बन जाता है। लोग मुझे निमित्त बार अपने प्रवचनों में मधुर फटकार लगा देते थे मान लेते हैं।" कन्वतन्त 00000000000000 PRPORROTOGGEDODOORDSDO Sosaip-sdocsiegistemsionalso.20000000000 For Pavate personal use only 8 8 o wanellbriryolog 106DDDDOG000000000 DODDESSOC9200000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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