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________________ 20620 | श्रद्धा का लहराता समन्दर अपनी अमृतमयी मधुर वाणी द्वारा जन-जन को उपदेश देकर आपने रत्नपुरी की पावनधरा पर चरण-कमल धर-कर मही व लाभान्वित किया। आपकी वाणी में मधुरता, हृदय में सरलता और जन-जन के मन को पुनीत कर दिया। उस अवधि में चार विरक्त नेत्रों में सरसता थी। आप शास्त्रों के ज्ञाता थे। उपाध्यायश्री जी की आत्माओं को (दीक्षार्थी भगिनियों को) चारित्र रत्न प्रदान किया। ध्यान के प्रति अटूट आस्था थी। सदैव आपकी ध्यान-साधना चलती ___आप मेघ बनकर आए व अतृप्तों को तृप्ति दी। ऐसी ज्ञानवृष्टि रहती थी । आपका संयमी जीवन महान् आदर्श एवं भूले-भटके बरसाई कि कई श्रोताओं के हृदय सरसब्ज हो उठे, कइयों ने मानवों के लिए पथ प्रदर्शक रहा है। आप स्थानकवासी समाज के अपनी हृदयसीप में अमृतवाणी की बूंदें लेकर आत्मसात करमा एक दीप स्तम्भ थे। आपके दर्शन का सौभाग्य मुझे चादर महोत्सव मुक्तारूप में परिवर्तित किए, उन वाणी मुक्ताओं को मैंने भी अपनी के शुभ प्रसंग पर प्रथम बार ही प्राप्त हुआ। आपके अंतिम दर्शन हृदय-मंजूषा में संजोकर रखा है। प्राप्त कर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी उन महान् गुणों के स्मृतिपट पर आते ही विचारों की चंचल PAR व लोकप्रिय संत थे। आपने अपने प्रिय शिष्य रत्न को सुघढ़ कर लहरें खामोश भी नहीं हो सकतीं व दिल कह उठता हैआचार्य के रूप में महान् मूल्यवान धरोहर श्रमणसंघ को समर्पित की। ऐसे युग पुरुष का अभिनन्दन करती हुई श्रद्धा सुमन अर्पित सृष्टि के इतिहास में, जुड़ गए, जीवन के पृष्ठ अनुपम। करती हूँ। सद्गुणों के विविध रंगों से, रंग गए जीवन चित्र अनुपम॥ हृदय प्यालियों में भरा था वाणी का सुधारस"मानव की पूजा कौन करे, मानवता पूजी जाती है। तारिफे काबिल है सब कुछ, व्यक्तित्व कृतित्व भी था अभिरूपम्॥ साधक की पूजा कौन करे, साधकता पूजी जाती है।" आप "भारंडपक्षी व चरेप्पमत्तो" वत् होकर ज्ञानाराधना में लीन बने रहते थे और जो हृदय-सागर में प्रतिपल ज्ञान व सद्गुणमुक्ता निकलते थे उन्हें बटोरकर रखते व जब-जब भी हम । सद्गुणों का महकता मधुवन आपके सान्निध्य में पहुँच जाते तो व्यर्थ चर्चाओं को छोड़कर त प्रश्नमुक्ताओं को प्रदान करते थे। या यूँ कह दें तो हर्ज नहीं कि -साध्वी सुमनप्रभा 'सुधा' आपने ज्ञान, संयम, साधनादि सद्गुणों से जीवन बगिया को आबाद (चाँद चरणोपसिका) कर रखा था अतः उससे अलग हटने का मन ही नहीं करता था। महान् विभूतियों का आदर्श भी महान् और विराट होता है। वे इसलिए कहूँगी आपकी विमलवाणी संघ हेतु प्रकाशस्तंभरूप में है तो श्रेष्ठ कर्मों को करके बूंद से महासागर में विलीन हो जाते हैं, जिन आपका निर्मल चिंतन साहित्यरूप में संघ समाज हेतु जन-जन Sad महापुरुष ने 'तिण्णाणं तारियाणं' की नैया स्वरूप बनकर 'बहुजन हितार्थ वरदान रूप भी है। हिताय बहुजन सुखाय' जीवन समर्पित किया वह थे उपाध्याय प्रवर मैंने देखा-उस अनुपम ज्ञान के स्वामी ने अलौकिक आलोक स्व. श्री पुष्कर मुनिजी म. सा.। पुंज के रूप में युग को दिशा व दृष्टि प्रदान की। अतः आप में - साधना की अतल गहराई, ज्ञान की उच्चतम ऊँचाई थी तो आपका जीवन कितना गौरव-गरिमावंत व महान रहा-ऐसे व्यक्तित्व व कृतित्व को शब्दों की परिधि में परिवेष्ठित करना सहज सागरसम गांभीर्यता व सुमेरूसम अटलता व विराटता भी थी। नहीं है क्योंकि आप ऐसे विशिष्ट योगी थे आपके साधनामय जीवन में जो भी 4 0 आया वह अभिभूत हुए बिना न रह सका, उनके जीवन के विभिन्न महकाया आपने विविध, सद्गुणों का मधुवन। आयामों से हम उनके जीवन प्रसंगों को उद्घाटित करें तो संयम में 2 उन्हीं पर न्यौछावर है, अबोला हृदय का स्पंदन॥ महानता, विचारों की विशालता, स्वभाव में माधुर्यता व मिलनअसीम गुणों को, ससीम शब्दों में बांध नहीं पाऊँगी। सारिता, व्यवहार में लघुता ही नजर आती थी। पर जो देखा वही लिखने, ललक रहा मेरा मन॥ और अंत में उनकी समता, सहिष्णुता तो अवर्णनीय ही हैमेरे अंतराकाश पर स्मृति पंछी उड़ान भर रहे हैं, उस छोर पर चादर समारोह के पश्चात् शारीरिक स्थिति गिरती जा रही थी, पहुँच रहा है यह मन पंछी जहाँ ३० जनवरी, १९८९ की मधुर । वेदना भी थी पर चेहरे पर तो समता की मुस्कान नजर आ रही प्रभात आपके शुभागमन में आनंद व धर्मप्रभावना की गुलाल उछाल थी, समाधिभावों में लीन बने रहे। और उन्हीं समत्व भावों में रही थी उस बेला ने हमें भी आकंठ आनंदमग्न कर दिया। उन्होंने नश्वर देह का परित्याग कर दिया। वह देह पुष्प मुरझाकर 9050 'समागतोऽहं तव दर्शनाय' उपाचार्य प्रवरजी (वर्तमानाचार्य), समाप्त हो गया पर उनकी यशःसुरभि से हमारा व समस्त DSS उपाध्यायप्रवर जी व अन्य संत महापुरुषों का पावन दर्शन पाकर जनमानस सौरभान्वित है, उन्हीं पुण्य पुरुष के श्री चरणों में हार्दिक मन समुल्लसित हो उठा। सुमनांजलि समर्पित करती हूँ। in quanto En private & Personaalse enly निमित्त का tema SDOG
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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