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________________ 92440000 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । वे दिव्यात्मा...... हमसे प्रश्न पुछवाया कि बाल भारी है कि कर्म भारी। हमने प्रत्युत्तर दिया कि बाल भारी। यह प्रसंग आपके आस्थाप्रदीप की भोर प्रेरित -महासती श्री प्रेमकुंवर जी करता है। आपश्री के महाप्रयाण से सकल जैन समाज को अपूरणीय क्षति वे 'निग्गंथा उज्जुदंसिणो' के अनुरूप सरल एवं भद्र परिणामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे ज्ञान के भंडार थे, दर्शन श्रद्धा के सुमेरू हुई है। वह अब पूर्ण होना असंभव है। इस दृष्टि पटल पर थे, चारित्र के चूड़ामणि थे, निर्मल कीर्ति के धनी श्रमण कल्प अनेकानेक जीवात्मा अवतरित होती हैं और मरती हैं, लेकिन दुनियां उसे याद करती है, उनके गुण गाती है, जिसको जीवन मर्यादा के संरक्षक थे। जीना आता है। वे जीवन जी गये और सकल जैन समाज को ऐसे महान दिव्यात्मा गुरुदेव का वियोग हमारे लिए वज्र जीवन जीने की कला सिखा गये तो उनके गुणों की सौरभ भी प्रहारवत् असह्य है। आज तक महक रही है। इस आलोक युग दृष्टा, युग स्नातक को मैं सूक्ष्मान्तर से र अप्रतिम सूर्य का महाप्रयाण ) श्रद्धा-सुमन समर्पित करती हूँ। हे परमात्मन्! आपने जो आदेश दिये हैं, उनका पालन हमेशा SODI -महासतीश्री विजयप्रभा जी म. अवश्य करता रहेगा जैन समाज। (राज. सिंहनी महासतीश्री प्रेमवतीजी म. की सुशिष्या) आप जिनशासन रूपी आकाश पर धवल कीर्ति और निर्मल 04 "संयम खलु जीवनम्" संयम ही जीवन है। असंयम ही मृत्यु । नक्षत्र बनकर सदैव चमकते रहें। है, जीवन के इस आदर्श सूत्र पर जो पावन चरण असी पथ पर आगे बढ़ते हैं, वे सदा वन्दनीय, अभ्यर्थनीय होते हैं। महान् आत्मबली साधक य भौतिक जीवन की अभिव्यक्ति का चले जाना अस्तित्व बोध का समापन नहीं है। हमारे जैन सिद्धान्त की महानतम परम्परा में मृत्यु -साध्वी डॉ. सुप्रभाकुमारी 'सुधा' को भी एक महोत्सव के रूप में स्वीकार किया गया है, तीर्थंकरों के एम.ए., पी-एच. डी. पंच कल्याणकों में निर्वाण कल्याणक को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया (महासती उमराव कुंवरजी की सुशिष्या) गया है। अध्यात्मयोगी, सन्त पुरुष, परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर ____ भौतिक मूर्तत्व का निर्माण और विलय प्रकृति की सतत् मुनिजी म. सा. श्री के दर्शनों का अनेक बार लाभ मिला किन्तु मैंने प्रक्रिया है, उसे सर्वत्र गतिमान है, उदय और विलय प्रकृति का अन्तिम दर्शन ३० मार्च, १९९३ को उदयपुर में किये। इससे पूर्व अकाट्य नियम पूज्य उपाध्यायश्री पुष्करमुनि जी म. का भी अंग कई बार दर्शन किये लेकिन १८ मार्च, १९९३ की दोपहर में मुझे है। आपका जीवन एक व्यक्ति का नहीं, वह समग्र विश्व की अपनी गुरु-बहनों के साथ सेवा में बैठने का शुभ अवसर मिला, । पवित्रता का जीवन है। जो आत्मा इस संसार में जन्म लेकर अपने उस समय पूज्य उपाध्याय श्री जी ने फरमाया-देखो! मेरे शरीर में लिए नहीं, बल्कि समाज के, प्राणीमात्र के लिए कल्याणार्थ जीते हैं, कितनी बीमारियाँ थीं, लेकिन मैं कभी परवाह नहीं करता हूँ। हार्ट FE उन्हें सकल संसार सदा-सदा के लिए याद किया करता है और की बीमारी भी ठीक हो गई और अभी भी एक लाख जनता के उनके महाप्रयाण यात्रा होने से शोक संतप्त हुआ करता है। बीच बिना लाउडस्पीकर के बोलने की क्षमता रखता हूँ। ऐसी एक इसी श्रेणी में परोपकार के लिए व प्राणीमात्र के कल्याणार्थ के नहीं अनेक बातें हुईं, जिन्हें सुनकर हम सकते हैं कि उपाध्याय श्री लिए अपना शरीर न्यौछावर करने वाले आस्था प्रतीक श्री। एक महान् आत्मबली साधक थे। पुष्करमुनि जी म. ने विश्व मानवता को सत्य, अहिंसा, विश्व मैत्री, ऐसे त्यागी महापुरुषों के सम्बन्ध में कुछ लिख पाना बहुत ही प्रेम का पावन संदेश समाज को चिरस्मरणीय यादांजलि भरती कठिन लगता है, क्योंकि उनकी संयम-साधना, ज्ञान-आराधना से 20. रहेगी। परिपूर्ण जीवन की महानता को तथा त्याग-वैराग्य एवं आपका बहुआयामी गुणी व्यक्तित्व था, ज्ञान-ध्यान के प्रति आत्मानुभूतियों की गहराइयों को शब्दों में नाप पाना मुश्किल ही गहरी रुचि थी। चादर महोत्सव पर पहले सोपान अहिंसापुरी में जब नहीं, अति मुश्किल है। कुल मिलाकर मुझे श्रद्धांजलि स्वरूप यही PP हम हमारी आराध्य सद्गुरुवर्याश्री के आदेशानुसार दर्शनार्थ | कहना है कि आपश्री का ज्योतिर्मय व्यक्तित्व युग-युग तक जन-जन आपके पुनीत चरणों में पहुँचे तो आपने किन्हीं बहनों के द्वारा का पथ प्रदर्शित करता रहेगा। 900 -20..90305 Jan Education Terme 50. 00050-Privates Personal use only Sa iny.jainelibrary.oral
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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