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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर है, वह रास्ता और वह मंजिल तेरी नहीं है, वह भूल-भुलैया है, यदि हम उपाध्यायश्री के विचारों का तलस्पर्शी अनुशीलन और जरा संभल, अपनी मंजिल की ओर कदम बढ़ा और भूल भरी राह परिशीलन करें तो सहज ही हम कह सकते हैं कि वे सच्चे को छोड़। यदि तू अपना तप, मन सर्वात्मना युग पुरुष के चरणों में युगपुरुष थे, युगदृष्टा थे, वे अंध परम्परा के कट्टर विरोधी थे। समर्पित कर देगा तो तेरा जीवन धन्य हो जाएगा। जन-जन के अन्तर्मानस में अभिनव चेतना का संचार किया, ऐसे परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. युग पुरुष के चरणों में भावभीनी श्रद्धाचेना। अपने युग के एक जाने-माने हुए युग पुरुष थे और उन्होंने अपनी जानी-मानी भोली जनता को श्रद्धा का पाठ पढ़ाया, भक्ति की शीर्षस्थ सन्त रत्न : उपाध्यायश्री जी । भागीरथी में अवगाहन कराया और अर्पणा का दिव्य संदेश प्रदान किया। युग पुरुष जीवन में अंधाधुंध निरुद्देश्य या तर्कहीन आचरण -महासती धर्मशीला जी म. के पक्ष में नहीं होता, उसकी एक प्रशस्त प्रांजल योजना होती है (महासती सत्यप्रभाजी की सुशिष्या) और वस्तुपरक निर्मल समीक्षा का हिमायती होता है, वह कर्मनिष्ठ । अप्रमत्त दुर्धर कर्मयोगी होता है, वह चाहता है हर धर्म के क्षेत्र में भारतवर्ष सन्तों का देश है, यहाँ पर संत परम्परा अर्वाचीन जो अन्धविश्वास पनप रहा है, राग-द्वेष के काले-कजराले बादल 1 नहीं है, इस परम्परा का आदिम रूप जानना हो तो हमें मंडरा रहे हैं और मानव सिर झुकाकर एक बंदी की तरह विवेक प्रागैतिहासिक पृष्ठों को उठाना होगा, जहाँ पर से यह विमल को विस्मृत होकर सभी को स्वीकार करता हुआ चला जा रहा है, स्रोतस्विनी प्रवाहित हुई। गंगाजल की तरह संत परम्परा गति करती वह उन व्यक्तियों को आगाह करता है कि तुम अपने जीवन | हुई आगे बढ़ती रही है, उसने ठहरना नहीं सीखा, ठहरने में गन्दगी व्यवहार की समीक्षा करो, चिन्तन के आलोक में सोचो कि आपका होती है और बहाव में निर्मलता रहती है। मानव को मानव के रूप जीवन कैसा है? अंधा-धुंध आँख मूंदकर किसी भी बात को में प्रतिस्थापित करने वाले संत व्यक्ति को अज्ञान के अंधकार से स्वीकार न करो किन्तु सद्विवेक से अपने जीवन और आचरण की निकाल कर ज्ञान के आलोक में लाते हैं, जिज्ञासा है, ज्ञान क्या है? सम्यक् समीक्षा करो और फिर उसे स्वीकार करो। ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम् अर्थात् जिससे जाना जाए वह ज्ञान है। ऐसा कोई क्षण नहीं जिसमें ज्ञान विद्यमान न रहता हो, ज्ञान को युगपुरुष सदा ही स्वप्नदृष्टा होते हैं। वे सदा-सर्वदा एक विदग्ध जानने वाला व्यक्ति ही ज्ञानी, पंडित है, इसी कारण आचारांग सूत्र ज्वलन्त सत्य को स्वीकार करता है, जिस प्रकार वैज्ञानिक प्रखर में श्रमण भगवान् महावीर ने कहा, “खणं जाणाई पंडिए" अर्थात् स्वप्न दृष्टा होता है, वैसे ही युग पुरुष भी वह पार्थिव तथ्यों की जो क्षण को जानता है, वही पंडित है, संत है। खोज में स्वप्न निहारता है, उन्हें आकृति प्रदान करता है तो दूसरा सामाजिक, दार्शनिक सत्यों को जन-जीवन में संस्थापित कर उसे संत परम्परा के इतिहास का यदि हम गहराई से परिशीलन प्रकट करता है, उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. एक मेधावी करें तो यह स्पष्ट होगा कि संत परम्परा के इतिहास में जैन संतों महापुरुष थे, उनकी कथनी और करनी में एकता थी, उन्होंने दूसरों का अलग-थलग स्थान है, उसकी दैनिक दिनचर्या दूसरे संतों से को प्रकाश देने का अहंकार कभी नहीं किया किन्तु उन्होंने स्वयं सर्वथा पृथक् है, उसकी अपनी जीवन शैली है, जैन संत पादविहारी प्रकाशमय जीवन जीने का प्रयास किया, उनके जीवन में वैषम्य होते हैं, वर्षा ऋतु में जीवों की उत्पत्ति अधिक हो जाने से चार नहीं था। भेदभाव की दीवारें नहीं थीं, उनका जीवन मैत्री के सूत्र माह तक वह एक स्थान पर अवस्थित रहकर धर्म की साधना से बँधा हुआ था। वे एकता के मसीहा थे, उनका यह मंतव्य था कि करता है, गुणों की उपासना करता है। काम, क्रोध, मद, मोह और मानव जाति एक है। अस्पृश्यता कृत्रिम, निर्मूल, निर्वश है इसलिये लोभ आदि दुर्गुणों से अपने आपको बचाए रखता है। उन्होंने अपने प्रवचनों में मानव एकता पर बल दिया। उन्होंने स्पष्ट परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का उद्घोषणा की कि धर्म पर किसी व्यक्ति विशेष का आधिपत्य नहीं जैन परम्परा के संतों में एक विशिष्ट स्थान था। यदि यह कह दिया है, धर्म के विशाल प्रांगण में संकीर्णता और भिन्नता को अवकाश जाए कि उनका शीर्षस्थ स्थान था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। नहीं है, धर्म के दरबार में सभी प्राणी समान हैं, जैसे सूर्य और वे सफल वक्ता, वाग्मी थे, उनकी कथनी और करनी में एकरूपता चन्द्र का आकाश और दिशा का बँटवारा नहीं हो सकता, उसी थी, उनकी वाणी में ओज, तेज और दूसरों के हृदय को प्रभावित तरह धर्म का भी बँटवारा नहीं हो सकता, उन पर सभी का करने की अद्भुत क्षमता थी। जैसा उनका नाम था वैसा ही उनका आधिपत्य है, धर्म आत्मा का स्वभाव है, किसी जाति, प्रान्त और गुण भी था, वे कैंची नहीं, सुई थे, जिनमें चुभन तो थी किन्तु दो देश का स्वभाव नहीं है। यदि धर्म में लोक मंगल की भव्य भावना दिलों को जोड़ने की अपूर्व योग्यता भी थी। संकीर्णता के घेरे में | नहीं है तो वह धर्म नहीं है, धर्म किसी खेत और बगीचे में पैदा आबद्ध समाज को उन्होंने विराट्ता का पाठ पढ़ाया, समाजोत्थान नहीं होता, वह तो हमारे अन्तर्मानस में पैदा होता है। के लिए उन्होंने अपना जीवन खपाया, वे अपने लिए नहीं सदा त RD a redasiya रिमcिiaDS D OD arte Pesonal use only 100000000000000000000000000200.85
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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