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________________ 546: 08 6.3000 100000RAG0.09 Có hai hàng hàng ngà 766oRato2090 तत उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । करने में सक्षम बने। जहाँ वे भाषा और दर्शन शास्त्री थे वहाँ वे उनका जीवन मण्डित था। उनमें प्रतिभा की विलक्षणता थी, वे आगम के गंभीर ज्ञाता भी थे। आगम के गुरु-गंभीर रहस्यों को इस | आशु प्रज्ञ और दीर्घ प्रज्ञ थे। किसी भी विषय के तलछट तक प्रकार समुद्घाटित करते थे कि जिज्ञासु आश्चर्यचकित रह जाता। पहुँचना उनका स्वभाव था। बचपन से ही उनमें प्रतिभा की स्फुरणा था। इस प्रकार की अनूठी, अद्भुत और विलक्षण प्रतिभा के धनी थी और साथ ही जिज्ञासु थे। सत्योन्मुखी जिज्ञासा ने ही उनके थे, हमारे श्रद्धेय सद्गुरुवर्य। आगम की भाषा में कहा जाए तो वे जीवन को प्रगति के पथ पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया था। “विज्जा, विनय संपन्ने" के साथ “आसु पन्ने और दीह पन्ने" थे। उन्होंने आगम साहित्य का गहराई से मंथन, न्याय दर्शन, व्याकरण सद्गुरुजी के गुणों का जितना भी उत्कीर्तन किया जाए, उतना आदि का तलस्पर्शी अनुशीलन और परिशीलन किया। वे जहाँ विद्यासंपन्न थे, वहाँ चारित्रसंपन्न भी थे। ही कम है, उनके गुणों को शब्दों में बाँधना बहुत ही कठिन है। श्रद्धा और भक्ति से विभोर होकर मैं अपनी भावार्चना उनके आगम साहित्य में एक सूक्ति है, "सच्चस्स आणाए उवट्ठिए श्रीचरणों में समर्पित करती हुई अपने आपके भाग्य की सराहना मेहावी मारं तरइ" सत्य की आराधना में उपस्थित मेधावी मृत्यु पर करती हूँ कि उस महागुरु के चरणों में मुझे बैठने का सौभाग्य । विजय वैजयन्ती फहराता है। श्रद्धेय उपाध्यायश्री के जीवन में मिला, उनकी अपार कृपा दृष्टि मेरे पर रही। प्रस्तुत सूक्ति ने साकार रूप ग्रहण किया था। उनकी सत्य के प्रति अपार निष्ठा सत्य ही उनका जीवन व्रत था। वे किसी भी मूल्य पर । विद्या और विनय से संपन्न : उपाध्यायश्री सत्य की अवहेलना नहीं करते थे। वे आगम की भाषा में "सव्वभूय हियदंसी" थे अर्थात् सर्वभूत हितदर्शी थे। प्रत्येक प्राणी का हित -साध्वी रत्नज्योति जी करना उनका स्वभाव था। (महासती पुष्पवती जी म. की सुशिष्या) उपाध्यायप्रवर जीवन भर ज्ञान की अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित श्रमण भगवान् महावीर की ज्योतिर्धर संत परम्परा में करते रहे, जो भी उनके चरणों में पहुँचता उन्हें वे ज्ञान प्रदान उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. का नाम स्वर्णाक्षरों में करने में आनन्द की अनुभूति करते। यहाँ तक कि अस्वस्थ अवस्था अंकित है। भगवान् महावीर के पवित्र सिद्धान्त उनके जीवन के में भी यदि कोई संत कोई साध्वी और कोई जिज्ञासु आगम, धर्म कण-कण में, मन के अणु-अणु में मुखरित थे। वे साधुता के शृंगार और दर्शन संबंधी जिज्ञासाएँ लेकर पहुँचता तो वे अपने तन के थे। मानवता के दिव्य हार थे। ज्ञान की अखण्ड ज्योति उनके जीवन । रोग को भूलकर उनके तर्कों का सम्यक् समाधान करते। अकाट्य को आलोकित कर रही थी। वस्तुतः इस प्रकार के संत आलोक तर्कों से और आगम प्रमाण से सिद्ध करते कि सत्य क्या है? स्तम्भ की तरह होते हैं। अन्धकार में परिभ्रमण करने वाले व्यक्ति उनके ज्ञान सागर में जब समर्पण उनका जीवन व्रत था। वे जन-जन के मन में मानवता अवगाहन करता तो विस्मय से विमुग्ध हो जाता, उसके हृतंत्री के का संचार करते थे। आदान में नहीं, प्रदान में उनका विश्वास था। तार झनझना उठते। धन्य है प्रभो आपके ज्ञान को, धन्य है प्रभो ग्रहण में नहीं, समर्पण में उनकी निष्ठा थी, सुख-शांति, प्रेम और आपकी स्मृति को। ज्ञान होने पर भी उपाध्यायश्री जी में ज्ञान का सद्भावना के वे पावन प्रतिष्ठान थे। उनकी वाणी मिश्री से भी अहंकार नहीं था, द्रव्य से ही नहीं, भाव से भी उपाध्यायश्री सच्चे अधिक मीठी थी, उसमें माधुर्य छलकता था। वे जो कुछ भी बोलते उपाध्याय थे। उनका जीवन सद्गुणों से मंडित था, उनके चरणों में थे हितकर और सुन्दर बोलते थे। शब्दों में सार, भाषा में भाव कोटि-कोटि वंदन। और माधुर्य इस प्रकार छलकता था जैसे अंगूर के गुच्छे हों। वे सच्चे वाग्मी थे। सच्चे युग पुरुष उन्होंने लघुवय में महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी म. के पास -महासती विलक्षण श्री जी आर्हती दीक्षा ग्रहण की और सद्गुरुदेव के कठोर अनुशासन में (महासती पुष्पवती जी म. की सुशिष्या) रहकर अध्ययन और संस्कारों की श्रेष्ठ निधि प्राप्त की, इसलिए वे स्वयं अनुशासित जीवन जीते रहे और दूसरों को भी यही पावन युग पुरुष वह है जो युग को नई दृष्टि देता है, नया चिन्तन प्रेरणा देते रहे कि अनुशासन में रहो। उनका जीवन अनुशासन का देता है, नई वाणी प्रदान करता है, उसकी वाणी में युग मुखरित जीता-जागता रूप था। होता है, उसके प्रत्येक क्रिया-कलाप में युग की चेतना झंकृत होती आगम साहित्य में संतों के लिए "विज्जा-विणय-संपन्ने" } है, वह युग को नई स्फूर्ति, नई जागृति और नई चेतना सब कुछ विशेषण आता है, विद्या के साथ विनय, विनय के साथ विवेक देता है, इसीलिए वह युग का प्रतिनिधित्व करता है। वह संसार को और विवेक के साथ वाग्मिता आदि ऐसे दिव्य और भव्य गुणों से कहता है कि जिस रास्ते पर तू चल रहा है, आँखें मूंदकर बढ़ रहा 20200.0000000000000 56.00hal2900CROSSADODO00000BHArivateaperserlabase enty 20.000०.00.0.30003089856030 30000000000000 ManD 0 0000000002040:20Niw jainelibrary.org. PaducationjrternationalSORHas 3 800501000%aca0a636090.61630049000RRORAG929699000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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