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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर संसार की प्रत्येक आत्मा को अमोघवाणी के द्वारा अमृत पान कराया। आपश्री की वाणी के प्रभाव आलोक से जनमानस आलोकित होता था क्योंकि हर वाक्य उसके अन्तःकरण को छू लेता था। जो भी आपश्री जी के सान्निध्य में आया उसने आनंद का स्रोत ही पाया। अतः आपश्री के हाथों की ललकार वाणी की ओजस्विता की ध्वनि हृदय पटल पर अंकित होती है। स्वर्गस्थ आत्मा को मैं अंतर्हृदय से चिरशांति मिले यही आपश्री के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करती हूँ। "लाखों करोड़ों तारिकाएँ उदय होती हैं आकाश में, समर्थ नहीं हो सकती सृष्टि तिमिर के नाश में। चन्द्र समर्थ आप उपाध्याय प्रवर पंचम काल में....... दीजिए पूज्य उपाध्याय प्रवर वरदान इस कलिकाल में ।" संयम प्रदाता सद्गुरुवर्य -साध्वी श्री चंदनबाला जी म. "सिद्धांताचार्य " (शासन प्रभाविका महासती श्री शीलकुंबर जी म. की सुशिष्या) परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. का व्यक्तित्व और कृतित्व मेरू पर्वत से अधिक ऊँचा और सागर से भी अधिक गंभीर था। शब्दों के बॉट से उनके जीवन को तोला नहीं जा सकता। ससीम शब्दों के द्वारा असीम गुणों का उत्कीर्तन भी कैसे किया जा सकता है मैं सोच रही हूँ, गुरुदेवश्री के गुणों को किन शब्दों में आबद्ध करूँ ? उनका हृदय मक्खन से भी अधिक मुलायम था और उनकी वाणी मिश्री से भी अधिक मधुर थी, उनके जीवन का कण-कण हीरे की तरह चमकदार था, मोती की तरह उनमें आद थी और माधुर्य से लबालब भरा हुआ क्षीर समुद्र-सा उनका जीवन था। कवियों ने संत हृदय की तुलना नवनीत से की है, नवनीत मुलायम होता है और गर्मी से पिघल जाता है, पर नवनीत से भी बढ़कर संत का हृदय है। नवनीत ताप लगने पर पिघलता है पर संत स्वताप से नहीं, परताप से पिघलते हैं, इसलिए वे नवनीत से भी बढ़कर हैं। किसी भी दीन-दुःखी को देखकर उनका हृदय दया से द्रवित हो उठता और मैंने देखा है हजारों व्यक्ति रोते हुए गुरुदेवश्री के पास आए और उनके ध्यान के मंगलपाठ को श्रवण कर हँसते हुए विदा हुए, बहुत गजब की थी उनकी साधना वर्षों तक अखण्ड साधना करने के कारण उनकी वाचा सिद्ध हो गई थी। मेरा परम सौभाग्य रहा कि श्रद्धेय पूज्य गुरुदेवश्री ने मुझे आती दीक्षा प्रदान की और मुझे दीक्षा देने के लिए लम्बा विहार 70000000 Jain Education International D HD 20 382 ४९ कर पधारे। साथ ही जब भी मैं गुरुदेवश्री के चरणों में पहुंची तब उन्होंने मुझे सदा ही ज्ञान-ध्यान की प्रेरणा दी जीवन के अंतिम समय में जब उनका स्वास्थ्य भी पूर्ण स्वस्थ नहीं था, हम पाली का यशस्वी वर्षावास संपन्न कर सद्गुरुणी जी श्री शीलकुंवर जी म. के साथ उदयपुर दर्शनार्थ पहुँची, प्रारंभिक वार्तालाप के पश्चात् गुरुदेवश्री ने पूछा कि कुछ आगमिक नये प्रश्न लाई हो क्या ? मैंने निवेदन किया कि गुरुदेव इस समय आपका स्वास्थ्य समीचीन नहीं है, इसलिए बाद में कृपा करना पर गुरुदेवश्री ने कहा, जो प्रश्न हो वे मुझे बताओ और मैंने प्रश्न गुरुदेवश्री के चरणों में रखे और गुरुदेवश्री ने उन सभी आगमिक प्रश्नों का समाधान कर दिया। गुरुदेवश्री की कितनी थी जिज्ञासा और जिज्ञासा के कारण ही उन्होंने हर क्षेत्र में प्रगति की । गुरुदेवश्री का जीवन जिस तरह से यशस्वी रहा, अंतिम समय भी उतना ही यशस्वी रहा, उन्होंने संथारा कर वीर की तरह हँसते-हँसते मृत्यु को स्वीकार किया, जिसे जैन आगमों में पंडितमरण कहा है और पंडितमरण को प्राप्त करने वाला महान् साधक होता है। गुरुदेवश्री के चरणों में मेरी अनंत आस्था के साथ वंदना, उनकी तरह हमारा जीवन भी महान् बने, यही उनके चरणों में भावभीनी श्रद्धार्थना गुणों के पुंज गुरुदेव -साध्वी श्री चेलना जी (विदुषी महासती श्री शीलकुंवरजी म. की सुशिष्या) कबीर भारतीय संस्कृति के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र थे, उन्होंने लिखा, "सम्पूर्ण पृथ्वी का कागज करूँ और सम्पूर्ण वृक्षों की कलम बनाऊँ और समुद्र की स्याही बनाऊँ तो भी सद्गुरु के गुणों का वर्णन नहीं लिख सकता।" कितने होते हैं सद्गुरु में गुण। मेरी जैसी लघु साध्वी किस प्रकार गुरु के गुणों का वर्णन कर सकती है। गुरुदेवश्री गुणों के पुंज थे उनका सम्पूर्ण जीवन गुणों से मंडित था। सर्वप्रथम दीक्षा लेने के पश्चात् गुरुदेवश्री के दर्शनों का सौभाग्य मुझे सादड़ी (मारवाड़) में प्राप्त हुआ। गुरुदेवश्री के मंगलमय प्रवचन भी सुनने को मिले, गुरुदेवश्री के प्रकांड पांडित्य को निहार कर और उनकी हित- शिक्षाओं को सुनकर मेरा हृदय श्रद्धा से नत हो उठा। उसके पश्चात् अनेकों बार गुरुदेवश्री के दर्शनों का सौभाग्य मिला, उनके श्रीचरणों में बैठने का अवसर मिला, जब भी मैं उनके चरणों में पहुँची, तब गुरुदेवश्री सदा ही हमें मधुर शब्दों में हित शिक्षा प्रदान करते रहे। धन्य है मेरा सौभाग्य कि ऐसे सद्गुरुवर्य हमें प्राप्त हुए। क्रूर काल ने हमारे से अपने गुरुदेव को छीन लिया पर गुरुदेव तो हमारे अन्तर हृदय में बसे हुए हैं, उनको For Private & Personal Use Only www.jainelibory.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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