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________________ 140 कौन छीन सकता है, मैं अनंत आस्था के साथ गुरु चरणों में श्रद्धा समर्पित करती हूँ। प्रेरणा के पावन स्रोत -साध्वी श्री साधनाकुंवर जी म. (महासती श्री शीलकुंवर जी म. की सुशिष्या) शिष्य के अन्तर मानस में एक विचार पैदा हुआ कि गुरु बड़ा है या गोविन्द । उसने चिन्तन किया, उसे समाधान मिला कि गोविन्द से भी बढ़कर गुरु है क्योंकि यदि गुरु नहीं होते तो गोविन्द के दर्शन कौन कराता, गोविन्द के दर्शन कराने वाला गुरु है, इसलिए वह गोविन्द से भी बढ़कर है। मेरे सद्गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का मेरे पर असीम उपकार है। गृहस्थाश्रम में भी हमारे गुरु उपाध्याय श्री रहे और संयमी जीवन में भी हमारे गुरु उपाध्यायश्री रहे। मैंने साध्वीरल महासती श्री शीलकुंवर जी म. सा. के पास संयम स्वीकार किया। गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे पर रही। बड़ी उम्र में दीक्षा लेने के कारण ज्ञान-ध्यान में विशेष प्रगति करना हमारे लिए संभव नहीं था। गुरुदेवश्री ने कहा, ज्ञान-ध्यान यदि नहीं होता है तो सेवा करो सेवा बहुत बड़ा धर्म है और गुरुदेवश्री की प्रेरणा से हमने अपने जीवन का लक्ष्य सेवा और तप को बनाया। गुरुदेव आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनकी मंगलमय शिक्षाएँ हमारे जीवन के लिए वरदान रूप रही हैं और उन शिक्षाओं को धारण कर हमने प्रगति की है। हे गुरुदेव, आपके चरणों में हमारी भाव-भीनी श्रद्धार्चना । तप-त्याग और संयम के सुमेरू -साध्वी श्री मंगलज्योति जी म. प्रकृति के प्रांगण में जब सहस्र रश्मि सूर्य का उदय होता है तो प्रकृति में अभिनव चेतना का संचार हो जाता है, जब आकाश में उमड़-घुमड़ कर घटाएँ आती हैं, उनकी गंभीर गर्जना को सुनकर मोर केकारव करने लगता है, जब आम्रमंजरी लहलहाने लगती है तो कोकिला पंचम स्वर में कूकने लगती है, वैसे ही महापुरुष जब अवतरित होते हैं तो जन-जन का मन आनंदविभोर हो उठता है। परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी म. ऐसे ही महापुरुष थे। सौ व्यक्तियों में एकाध व्यक्ति बहादुर होता है और हजारों में एकाध व्यक्ति पंडित होता है और दस हजार व्यक्तियों में एकाध व्यक्ति वक्ता होता है किन्तु लाखों व्यक्तियों में एकाध व्यक्ति महापुरुष बनता है। महापुरुष समाज का मुख भी है और मस्तिष्क भी। वह समाज की हर परिस्थिति पर चिन्तन करता है और यह उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ प्रेरणा देता है कि किस तरह से बुराइयों से जूझना है और प्रगति करनी है। मानव का जीवन क्षणिक है, जन्म लेते ही उसकी यात्रा मृत्यु की ओर प्रस्थित होती है पर कुछ विशिष्ट व्यक्ति होते हैं जो इस क्षणिक जीवन में भी आत्मा को निखारने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करते हैं। जन्म और मरण के चक्र से अपने आपको निकालने का प्रयास करते हैं, ऐसे ही सद्गुरुदेव थे, उनके तपोमय जीवन को निहारकर हृदय श्रद्धा से नत होता रहा, उनके जीवन में तप था पर तप का अहंकार नहीं था, उनके जीवन में उत्कृष्ट चारित्र था पर चारित्र का प्रदर्शन नहीं था, वे सिद्ध जपयोगी थे जप के प्रति उनके अन्तर्- मानस में अपार आस्था थी। मैंने गुरुदेव से पूछा, आपश्री किसका जप करते हैं? गुरुदेवश्री ने कहा- 'नवकार महामंत्र' से बढ़कर और कोई मंत्र नहीं है। मुझे मेरे दादागुरु श्री ज्येष्ठमल जी म. सा. ने स्वप्न में आकर जो जपविधि बताई, उसी विधि के अनुसार मैं जप करता हूँ, जप करने में मुझे अपार आनंद आता है और वह आनन्द अनिर्वचनीय है। गुरुदेवश्री ने मुझे यह भी बताया कि ज्येष्ठ गुरुदेव की मेरे पर असीम कृपा रही है, समय-समय पर उनके स्वप्न में दर्शन होते हैं, जो भी समस्या होती है वे मार्गदर्शन देते हैं। मैं उनका पौत्र शिष्य हूँ, उनकी असीम कृपा को मैं विस्मृत नहीं हो सकता, मैं तो तुम्हें भी कहता हूँ कि तुम भी ज्येष्ठ गुरुदेव पर अनंत आस्था रख क्योंकि तुम्हारा जन्म भी उसी परिवार में हुआ है जिस परिवार में दादागुरु ने जन्म लिया, अतः पारिवारिक दृष्टि से तुम भी उनकी पौत्री हो, गुरुदेवश्री के आदेश से मैंने जप प्रारंभ किया और वस्तुतः मुझे भी अपार आनंद की अनुभूति हुई। गुरुदेवश्री के दर्शन दीक्षा लेने के पश्चात् अनेकों बार हुए। जब भी हम गुरुदेव श्री के दर्शन के लिए पहुँचे, सदा ही हमने गुरुदेवश्री के चेहरे पर अपार प्रसन्नता देखी, आध्यात्मिक साधना की मस्ती देखी, कई बार तन से रुग्ण होने पर भी उनके मन में कहीं रुग्णता नहीं थी, इसे कहते हैं सच्चे साधक का जीवन सच्चा साधक सदा आत्मभाव में रहता है, गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे पर रही और जीवन के अंतिम क्षणों में भी हमने अपनी आँखों से देखा कि गुरुदेवश्री संथारे में किस प्रकार जागरूक स्थिति में मृत्यु से भी अभय थे, जहाँ अन्य व्यक्ति मृत्यु से कांपता है, वहाँ गुरुदेवश्री के स्वर इस प्रकार प्रस्फुटित हो रहे थे। अब हम अमर भये न मरेंगे............. धन्य हैं ऐसे महागुरु को जिनका जीवन आदि से अंत तक ज्योतिर्मान रहा । तप-त्याग और संयम के सुमेरू को अनंत आस्था के साथ वंदन। Pivate & Hersonal use www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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