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________________ २०४००. ०Pos 069601234 209D गर एएमलव ४८ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ज य उपाध्यायश्री जी कई भाषाओं के विशेषज्ञ थे। गुरुदेव की । प्रहर का विधान है, तो छः प्रहर का समय साधक का ज्ञान और स्मरण शक्ति बड़ी प्रखर थी। पूज्य गुरुदेव में एक अद्भुत आकर्षण ध्यान में बीतता है। साधक सदा अप्रमत्त रहकर ज्ञान और ध्यान में Re शक्ति थी, जो एक बार उनके सान्निध्य में आया वह सदा-सदा के । अपनी शक्ति का सदुपयोग करता है। लिए उनका परम भक्त बन गया। उस आत्मा का संस्था के प्रति । पंचम काल में तीर्थंकर नहीं हैं, मनःपर्यवज्ञानी भी नहीं हैं, न यश का कोई लगाव नहीं था। आप अपने शिष्य को आचार्य पद अवधिज्ञानी हैं और न वर्तमान में पूर्वधर ही हैं, वर्तमान में देकर समाज को सशक्त बनाने में समर्थ हुए। जिनवाणी का और गुरुदेव का ही आधार है। गुरुदेव अपनी विमल | उस महापुरुष के जाने से लाखों आँखें रो रही हैं। कारण! वाणी से अज्ञान अंधकार में भटकते हुए भव्य प्राणियों को प्रतिबोध उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. की छाया से आज हम सब देते हैं, सद्गुरुदेव का जीवन बहुत ही निराला जीवन था, वे महान् वंचित हो गए थे। उपाध्यायश्री के वियोग की बात सुनकर कौन साधक थे उनका तपःपूत जीवन हम सभी के लिए प्रेरणा स्रोत था, ऐसा मानस होगा जो तड़फा न होगा। मेरे पर गुरुदेवश्री का अनंत उपकार रहा है, गुरुदेवश्री की पावन प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर मैंने अपने जीवन के लिए दो मार्ग चुनेतेरे गुण की गौरव गाथा, धरती के जन-जन गाएगें। एक सेवा और दूसरा तपस्या। जब मैं तपस्या करती तब गुरुदेवश्री और सभी कुछ भूल सकेंगे, पर तुम्हें भूला न पाएगें। मुझे फरमाते दया माता तपस्या की साता है। गुरुदेवश्री के गुरुदेव का सबसे बड़ा चमत्कार यह हुआ कि जब लोग मंगल, मुखारबिन्द से यह बात सुनकर मेरा हृदय प्रसन्नता से झूमने लगता, बुध को चादर महोत्सव करके गए। फिर ५ ता. को वही भीड़। वही उनका सम्बल पाकर मैं साधना में अग्रसर हुई हूँ। जुड़ी भीड़ उस महापुरुष का परिचय था। उस महापुरुष की गुरुदेवश्री तन से हमारे बीच से चले गए किन्तु हमारे दिल के पुण्यवानी २०० साधु-सन्तों का मिलना। यह भी एक दुर्लभ कार्य सिंहासन पर वे आज भी विराजमान हैं और सदा-सदा विराजे अकस्मात् सहज ही हो गया। दाह संस्कार के समय कड़ाके की धूप रहेंगे। होते हुए भी एक बदली आई और कुछ क्षण में चलती बनी। लोग बोले म. इन्द्र देवता भी गुरुजी को श्रद्धांजलि के लिए पुष्प अर्पित श्रमणसंघ का सितारा करने आये हैं। लेकिन मेरा मन रो रहा था अब उनको लेने कहा जाए, इसलिए मन कह उठता है कि एक बार आओ गुरुजी....... -जैन सिद्धांताचार्य साध्वी श्री सुशील जी उनके गुणों का वर्णन कहाँ तक करूँ। उस महान् विभूति के गुणों का आत्मसात करना ही उनके "तोड़ दिये आपने संसार के बंधन, चरणों में अपनी सच्ची श्रद्धांजलि समर्पित करना है। जीवन है आपका सुन्दर शीतल चंदन। भक्तों के हैं उपाध्याय प्रवर भव दुःख भंजन .. "तेरे गुणों की गाथा जमाना गाता रहेगा। उपाध्यायश्री के गुण गाने का हृदय में हो रहा स्पंदन॥" जब तक सांस में सांस है, स्मृति तराने बजाता रहेगा।" इस विराट् संसार के प्रांगण में महान् आत्माओं की चेतना साधना के सतत् प्रहरी के पद चिह्नों पर चलकर यदि हम । शक्ति की आवश्यकता होती है। जिनके चिन्तन के कदम जन अपने आत्म-बल को सशक्त बना सकें तो निश्चित ही अमरत्व प्राप्त समुदाय के लिए गतिमान थे। आपश्री की विचक्षण बुद्धि प्रत्येक Page हो सकेगा। प्राणी के लिए सच्चा मार्गदर्शन कराने में दिशाप्रद थी। जिनका व्यक्तित्व अद्वितीय था। भव्य एवं महान् आत्मशील महामुनि थे। इन आराध्य गुरुदेवश्री महान् विभूति के गुणों की प्रशंसा करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु जैसी दुनिया की महान् शक्तियाँ भी कुण्ठित हो जाती हैं। -महासती श्री दयाकुंवरजी म. सा. मेरे जैसी अल्पबुद्धिवाली द्वारा इन महान् हस्ती की गुण गरिमा (परम श्रद्धेय स्व. श्री धूलकुंवरजी म. की सुशिष्या) को अपने शब्दों में गुंथन अर्थात् सूरज से सामने दीपक बताने परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी म. वाली कहावत चरितार्थ होगी। आपश्री के दर्शन का लाभ शेषकाल श्रमणसंघ के उपाध्याय थे। उपाध्याय का अर्थ है, जो स्वयं ज्ञान में अल्प समय का प्राप्त हुआ था। तत्पश्चात् सन् १९७९ का करते हैं और दूसरों को ज्ञान की पावन प्रेरणा देते हैं। गुरुदेवश्री चातुर्मास सिकन्दराबाद में चरण सरोज का योग मिला। उपाध्यायश्री का जीवन ज्ञानयोगी था, ज्ञान और ध्यान जीवन साधना के दो की महती कृपा मेरे पर थी। जो कि मैं अपने शब्दों में व्यक्त करने पांख हैं, जिससे साधक आध्यात्मिक गगन में विहरण करता है, 1 में असमर्थ हूँ। उसके बाद पूना संत सम्मेलन में दर्शन का आगम साहित्य में ज्ञान के लिए चार प्रहर और ध्यान के लिए दो अत्यल्प लाभ प्राप्त हुआ। श्रमणसंघ के उज्ज्वल तारे जिन्होंने 3486506908050019860 0- POESD 200000 20020201290 SECOD96566 2050.COACATION For Private & Personal Use Only 2080p-www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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