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________________ ५४ - मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ साधर्मी सहायता स्वरूप हजारों रुपये प्रति वर्ष पहुँचते हैं। कई विद्यार्थी आपश्री की महती कृपा से प्रगति कर रहे हैं। ___ आपका जीवन एक अगाध सिन्धु सदृश्य है। जिसमें जो भावुक डुबकियाँ लगाता है वह विविध गुण रूपी रत्नों को अवश्य प्राप्त कर आनन्दित हुए बिना नहीं रहता। जो भी वादी-प्रतिवादी आपके सम्पर्क में आते हैं वे पूर्ण रूप से सन्तुष्ट होकर ही घर लौटते हैं । संयम साधना के अन्तर्गत आपने हजारों मील की पैदल यात्रा करके राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पंजाब को पावन किया है। इस समय आपकी अवस्था करीब ८५ वर्ष की है। सम्भवत: स्थानकवासी जैन समाज में सबसे बड़े दीक्षास्थविर, वयःस्थविर एवं श्रुतस्थविर आप ही हैं। आपकी साधना के आद्योपांत सभी क्षण गौरवशाली रहे हैं। मनसा, वाचा, कर्मणा सदैव आप समस्त विश्व कल्याण भावना का चिन्तन किया करते हैं। जिस प्रकार आप शारीरिक दृष्टि से गौरवर्ण युक्त हैं। उसी प्रकार आन्तरिक जीवन भी आपका विमल और विशुद्ध है। कई बार मुझे आप के समीप रहने का अवसर मिला है। आपके मुंह से मैंने कभी भी किसी की निन्दा नहीं सुनी। आप सागर सदृश्य गम्भीर हैं। विविध प्रसंग आपके सामने उभर आते हैं पर आप सभी को अमृत मान कर पी जाते हैं। यही कारण है कि सभी मुनिराज आपको गुरु तुल्य मानते हैं। __ मैं अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण के शुभावसर पर पूज्य उपाध्यायश्री के कल्याणकारी चरणों में श्रद्धासुमन अर्पित करता हुआ आपके सुदीर्घ जीवन की मंगल कामना करता हूँ। आशा करता हूँ कि आप जैसे महामनस्वी मुनिपुंगव द्वारा मार्गदर्शन मिलता रहे ताकि मैं अपने साधक जीवन को आलोकित करता रहूँ। जैन स्थानक २०३३ वर्षावास रूपनगर (राजस्थान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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