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________________ अभिनन्दन-पुष्प कोरे कागज पर ज्ञान के हस्ताक्षर ] श्री कांतिमुनि जी महाराज 'जैन सिद्धान्त विशारद' यह जगविदित और सर्वमान्य बात है कि भारत आदिकाल से एक आत्मवादी देश रहा है। जैन, वैदिक और बौद्ध धर्म की धाराएँ इसी देश से निकली हैं और उसके अविरल ज्ञान, वैराग्य, अध्यात्म प्रवाह ने जग को आप्लावित किया है। भारतीय जन जीवन की पृष्ठभूमि के निर्माण में ऋषियों, मनीषियों और चिन्तकों का महान योगदान रहा है। समय-समय पर सन्तों ने इस देश में ज्ञान, दर्शन, चारित्र की त्रिवेणी मानव-मेदिनी में प्रवाहित कर जन-मानस को आध्यात्मिक अवगाहन का अमूल्य अवसर प्रदान किया है। सन्तों की इस उज्ज्वल, पुनीत, अविच्छिन्न परम्परा में "मालवरत्न, वयोवृद्ध, शास्त्रज्ञ, ज्योतिर्विद पूज्य गुरुदेव श्री कस्तूरचन्दजी महाराज" एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कड़ी है। शस्य श्यामल मालव प्रान्त के रतलाम नगर में विराजित पूज्य गुरुदेव श्री कस्तूरचन्दजी महाराज से कौन परिचित नहीं है ? कोटि-कोटि जैन व अजैन धर्मप्राण जनता इनसे परिचित व प्रभावित है। संत-सतियाँ एवं श्रावक-श्राविका इनकी सेवा व दर्शन कर अपने आपको धन्य व महाभाग्यशाली मानते हैं। इन्हीं पुनीत पावन जगत उद्धारक पूज्य गुरुदेवश्री की सेवा करने का शुभ अवसर मुझे लम्बे समय से प्राप्त हो रहा है, जिससे मैं अपने आपको धन्य व गौरवान्वित अनुभव करता हूँ। सांसारिक जीवन काल से ही मैं गुरुदेव के सान्निध्य में रहा। गुरुदेव के दर्शनार्थ जो भी कोई आता है, वे उन्हें जीवन विकास के लिये आध्यात्मिक सद्प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं। इसी प्रकार उनके द्वारा मुझे भी प्रेरणा प्राप्त हुई एवं मेरे मन में पड़ी अज्ञान की गुत्थी सुलझ गई। उनके आदर्श व त्यागपूर्ण जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर मुझे भी सांसारिक प्रपंचों से विरक्ति हो गई और मैं भी संयम मार्ग की ओर अग्रसर होने लगा। समाज व गुरुदेवश्री के द्वारा जांचा-परखा गया। मेरी दृढ़ संयमी भावना देखकर व पारिवारिक सम्बन्धियों से स्वीकृति प्राप्त होने पर गुरुदेव ने दीक्षा के लिये आज्ञा प्रदान कर दी। संवत् २०२७ माघ सूदी पंचमी (बसन्त पंचमी) रविवार को गुरुभ्राता पण्डित श्री रमेश मुनिजी महाराज 'जैन सिद्धान्त आचार्य' द्वारा ग्राम छायण (जिला-धार) में दीक्षित हुआ एवं गुरुदेव श्री प्रतापमलजी महाराज को नेश्रित किया गया। दीक्षा ग्रहण करके मैं सीधा विचरता हुआ पूज्य गुरुदेवश्री कस्तूरचन्दजी महाराज के श्री चरणों में सेवार्थ रतलाम पहुँचा । दीक्षाकाल से लेकर अब तक मैं गुरुदेवश्री की सेवा में हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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