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________________ गुरुदेव श्री के वचनामृत-बिन्दु ४३ खूबचन्द जी महाराज एवं जैन दिवाकर जी महाराज के सामने कभी-कभी उग्र वातावरण उभर आता था। फिर भी उन महा मनस्वियों के चेहरों पर समता और मुख से अमृत ही बरसता रहता था। सुना पर समझा नहीं "मानव समाज इतना सुनता है, फिर भी उनके जीवन में परिवर्तन क्यों नहीं आता?" मैंने पूछा। समाधान के परिक्षेप में गुरुदेव ने कहा-"सुनाना बुरा नहीं, इसी तरह सुनना भी बुरा नहीं। फिर भी मानव के जीवन में परिवर्तन क्यों नहीं आया ? यह तर्क आज काफी चर्चीला बन चुका है। कारण यह है कि-सम्यक प्रकार से अभी तक उन्होंने धर्म के मर्म को समझा नहीं है। हेय-ज्ञेय-उपादेय क्या है ? आज के श्रोता इनसे अनभिज्ञ रहे हैं। इसलिए भौतिक धन-सम्पति में आसक्त एवं उनके प्रति प्रगाढ़ ममत्व बुद्धि रही हुई है। जब तक श्रोता यह न समझ ले कि-भौतिक सुख-सुविधा नश्वर मात्र है । मैं इनका नहीं, ये मेरे नहीं। केवल जीवन निर्वाह का व्यावहारिक साधन मात्र है। मुझे बंधन में उलझाये रखने वाला एक जाल है। तब तक विचारों में न परिवर्तन आ सकता है और न विचारों का परिस्कार ही हो सकता है।" सुनना और सुनाना बुरा नहीं आज सभी देख रहे हैं, चारों ओर व्याख्यान देने वाले संतों की एवं संसारी वक्ताओं की कोई कमी नहीं है । फिर भी जैसा चाहिए वैसा सामाजिक सुधार क्यों नहीं हो रहा है ? प्रत्युत्तर में गुरुदेव ने कहा- 'सामाजिक सुधार क्यों नहीं हो रहा है ?' यह बात दूसरी है। पर सुनने और सुनाने की प्रथा बुरी नहीं, अच्छी है । सुनते रहेंगे तो अवश्य एक दिन धर्म के मर्म को समझेंगे। स्व-पर का हिताहित एवं पुण्य-पाप क्या है, इन्हें जानने की कोशिश करेंगे और कभी न कभी अपनी गलत आदतों को, राहों को एवं रूढ़ियों को बदल भी देंगे। शास्त्र में कहा-“सोच्च जाणइ कल्याणं, सोच्चा जाणइ पावणं' अर्थात् सुनकर ही कल्याण और अकल्याण मार्ग का ज्ञान होता है। इसी प्रकार सुनाना भी बुरा नहीं, एक अच्छी धार्मिक प्रवृत्ति है । संत और समाज को एक स्थान पर बिठाने का एक सुन्दरतम माध्यम है । इस माध्य का बहुत बड़ा लाभ यह है कि संत और समाज दोनों का सम्पर्क चालू रहता है और विचारों का आदान-प्रदान भी। अगर इस प्रवृत्ति को निरर्थ मानकर अंत करने पर दोनों पक्षधर स्वछन्दी बन जायेंगे। समाज के प्रति संत और संत के प्रति समाज बिलकुल उपेक्षित हो जायेंगे । इसलिए धर्मोपदेश की प्रथा अत्यधिक इस युग में उपयोगी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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