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________________ ४२ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ सही अर्थों में भक्ति नहीं भक्ति का एक विकृत रूप है। मन और इन्द्रियों को सन्तुष्ट करने का एक मन-मोहक रंग-विरंगी चहल-पहल का दृश्यमात्र । मैं पूछता हूँ-जिसके नाम पर तुम भारी आडम्बर कर रहे हो, उनके बताये हुए सिद्धान्तों पर चलने के लिए क्या तुम तैयार हो ? मानव समाज के पास इसका कोई उत्तर नहीं है । व्यर्थ की आडम्बर प्रवृत्ति ने आज मानव के जीवन को आचरणहीन बना दिया है। इसलिए आज मानव की बुद्धि जड़ होती जा रही है। विषमता का समाधान क्या है ? "क्या कारण है ? दिनोंदिन मानव समाज में इतनी विषमता क्यों पनपती है ?" मैंने पूछा। महाराज श्री ने कहा-"मैंने कइयों के मुंह से कहते हुए सुना है-फलांचन्द जी ने अपनी पुत्री के लग्नोत्सव में हजारों रुपयों का दहेज दिया और खिलाने-पिलाने में अंधाधुंध खर्चा भी किया । सारे गांव में उसकी प्रशंसा हुई । अब मुझे भी अपनी पुत्री का विवाह उससे सवाया करके दिखाना है। ताकि दुनिया उसे भूल जाय और मेरे कार्यों को याद करे।" इस प्रकार आज मानव में प्रतिस्पर्धा का बाजार गर्म है। सभी होड़ा होड़ की बाढ़ में बह रहे हैं । विवाह में बेसुमार दहेज लिया जाता एवं दिया जाता है। जबकि-सगा पहले से ही श्रीमंत है। फिर भी भरे हुए को जबरन धन-माल भरा जाता है। यह समाज की कैसी गलत प्रथा है ? इस कुप्रथा का परिहार आज अनिवार्य हो चुका है। विषमता का बीजारोपण इसी तरह तो होता है। अगर समाज के साधारण परिवार के सुयोग्य-सुशिक्षित-सुशील लड़के को पुत्री और पैसा दिया जाय तो वह लड़का जीवन पर्यन्त एहसान मानना नहीं भूलेगा। इस प्रकार आसानी से समाजवाद का फैलाव हो सकता है। पर समाज का धनी वर्ग ऐसा करता कहाँ है ? गरीब लड़के उनकी नजरों में आते ही नहीं हैं। संत की परिभाषा “संत जीवन की पहचान क्या है ?" मैंने पूछा। संत का अंतरंग जीवन और बहिरंग जीवन समता समानता की धुरी पर टिका . हुआ है। उसके भीतरी जीवन से सरलता, सौहार्द्रता एवं सहानुभूति के मंद-सुगंधशीतल-स्रोत प्रस्फुरित होते हैं, तो बाह्य जीवन से कोमलता-कामनीयता बरसा करती है। कथनी-करणी, वृत्ति और प्रवृत्ति में कोई अन्तर नहीं रहता है। जिसकी कथनी और करणी में आकाश-पाताल का व्यवधान है । वह संत कैसा ? संत के चेहरे पर सौम्यता और मुख से सदा अमृत बरसता है । मैंने स्वयं ने देखा है-पूज्य श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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