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________________ गुरुदेव श्री के वचनामृत-बिन्दु दुखित एवं विह्वल हुए बिना नहीं रहता है। उस समय मेरे रोम-रोम में एक नई हलचल मच जाती है। कारण यह है कि मेरी आत्मा विगत अनेक भवों में चतुर्गति संसार में अगणित बार दारुण दुःखानुभूतियां कर भुक्तभोगी बन चुकी है। वे अनुभूतियां इन व्यथित और पीड़ित आत्माओं की उठती हुई चीत्कारों से पुनः आज ताजी हो जाती हैं । फलस्वरूप पर-वेदनानुभूति को मैं स्व-वेदनानुभूति मानता हूँ। वृत्ति और प्रवृत्ति “साधुओं की वृत्ति-प्रवृत्ति किस ढंग की होनी चाहिए ?" मैंने पूछा। कतिपय साधु-संन्यासियों की वृत्ति और प्रवृत्ति क्लेश कामी हुआ करती है। "फूट डालो, राज करो" यह नीति उन्हें इष्ट और प्रिय लगती है। इस विचारधारानुसार जहाँ भी वे पहुँच जाते हैं, वहाँ पारस्परिक स्थानीय संगठन में फूट के बीजारोपण करने में और शान्त वातावरण को कडुआ बनाने में चूकते नहीं हैं। पर मेरी विचारधारा उक्त धारा से बिलकुल मेल नहीं खाती है। मुझे अच्छी तरह याद है, जहाँ-जहाँ मेरे चातुर्मास हुए हैं एवं जहाँ-जहाँ मेरा विचरण हुआ है। मैंने बिखराव के स्थान पर समाज-संघ में सहभाव की स्थापना की है। बिखरे हुये दो दलों को मिलाने में मैंने अपना गौरव समझा है । मैंने अपने अनुयायी संतों को भी यही कहा है-क्लेश और द्वेषात्मक वातावरण को बढ़ावा नहीं देते हुए समाज में स्नेह संगठन और सहानुभूति की स्थापना करें। "आपको अधिक प्रिय कौन लगते हैं ?" मैंने पूछा । प्रत्युत्तर में गुरुदेव ने बहुत ही मीष्ठ वाणी में समाधान किया-"खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु में" आगम के इन महान् वाक्यों को केवल मैंने पढ़े ही नहीं हैं अपितु मैंने अपने साधक जीवन में इन्हें उतारा भी है। अर्थात्- समष्टि के समस्त प्राणीभूत और जीव सत्वों पर मेरी समदृष्टि रही है। सभी के साथ मैत्री-भाव का समान व्यवहार करने का मैं पूरा ध्यान रखता हूँ। फिर भी वे नर-नारी मुझे अधिक प्रिय लगते हैं, जो नियमित रूप से धर्माराधना में रत रहते हुए दीन-दुःखियों की करुण पुकार को सुनते, समझते एवं यथाशक्ति सहयोग देकर उन्हें ऊपर उठाते हैं। आडम्बर और सिद्धान्त "सभी के लिए महत्त्वपूर्ण क्या है ? आडम्बर कि-सिद्धान्तों की परिपालना ?" मैंने पूछा। कई बार स्वयं मैंने अनुभव किया है। अपने-अपने देव-गुरु-धर्म के नाम पर सैकड़ों-हजारों नर-नारी एकत्रित होकर जन्म तिथियां और स्वर्ग तिथियाँ विराट आडम्बरों के साथ मनाते हैं। कहीं-कहीं देव-गुरु के नाम पर बड़े-बड़े मेले भरे जाते हैं, कहीं-कहीं गुरु की मूर्तियों के अनावरण महोत्सव मनाये जाते हैं। ये सब क्या हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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