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________________ ३६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ "भगवंत ! ज्योतिष जगत् की यह चिर मान्यता रही है कि-"रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु" इस प्रकार नौ ग्रह मानते हैं और ग्रहगोचर दशा के अनुसार ही प्राणी सुखी किंवा दुखी होते हैं। दूसरी ओर डंके की चोट जैन दर्शन (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम गोत्र और अन्तराय कर्म) आठ कर्मों की अभिव्यक्ति करता हुआ, स्पष्टतः कहता है कि-यह शुभाशुभ कर्मों का ही फल है कि सभी प्राणी समान नहीं होते हैं। कोई कम आयु वाले, कोई दीर्घ आयु वाले, कोई रोगी, कोई निरोगी, कोई कुरूप, कोई सुन्दर, कोई प्रभावहीन, कोई प्रभावशाली, कोई निर्धनी, कोई धनी, कोई हीन कुल वाले, कोई उच्च कुल वाले, कोई विद्वान, कोई अनपढ़ । तो फरमावे कि-"क्या ग्रह प्रभाव को सही मानना किकर्म प्रभाव को?" समन्वयात्मक ढंग से गुरु प्रवर ने समझाया कि-नौ ग्रह भी कर्मों से मुक्त नहीं हैं। समस्त ग्रह एवं उपग्रह कर्माधीन हैं। कर्मानुसार ये ग्रह अपना प्रभाव दिखाते हैं । फलतः ग्रहों के स्वभाव में और कर्मों के स्वभाव में काफी साम्यता रही हुई है। निम्न प्रकार से समन्वय कर सकते हैं : रवि ग्रह ज्ञानावरण कर्म सोम ग्रह दर्शनावरण कर्म मंगल ग्रह वेदनीय कर्म बुध ग्रह मोहनीय कर्म गुरु ग्रह आयूष्य कर्म शुक्र ग्रह नाम कर्म शनि ग्रह गोत्र कर्म राहु-केतु अन्तराय कर्म सविस्तार वक्तव्य को जारी रखते हुए आगे गुरुदेव ने कहा कि-जब ज्ञानावरण कर्म का प्रबल उदय रहता है, तब ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। जिसको ज्योतिष में नीच का सूर्य या सूर्य की बिगड़ी हुई दशा मानी जाती है। ऊँच का सूर्य अगर है तो ज्ञान प्राप्ति में सहायक होता है। इसी प्रकार दर्शनावरण कर्म और सोम ग्रह का खासा सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। मंगल ग्रह और वेदनीय कर्म का सम्बन्ध, बुधग्रह और मोहनीय कर्म का सम्बन्ध, गुरु को देखकर आयुष्य कर्म का निर्णय किया जा सकता है, गुरु यदि बलवान है तो आयुष्य कर्म सशक्त रहेगा और गुरु नीच का है तो रोग ग्रस्त जीवन रहेगा, शुक्र ग्रह का शुभाशुभ नाम कर्म से सम्बन्ध है। शुक्र ग्रह यदि उच्च का होकर पड़ा है तो सुख्याति और नीच का होकर पड़ा है तो कुख्याति, शनिग्रह और गोत्र का खासा सम्बन्ध है। इसी प्रकार राहु और केतु दोनों ग्रह अधिक रूप से विघ्न बाधक माने हैं, अन्तराय कर्म का स्वभाव भी बाधक स्वरूप ही माना है। ___ इस प्रकार समन्वय के सन्दर्भ में गुरुदेव ने अपने मौलिक उद्गार व्यक्त करके एक नई अनुभूति का रहस्योद्घाटन किया। । । । । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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