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________________ प्रेरक प्रसंग ३५ आचार्यों ने (आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज और आचार्य श्री घासीलाल जी महाराज) परिष्कार किया और न तत्सम्बन्धी इन आचार्यों ने चिंतन-मनन-मन्थन भी किया कि-'सय' शब्द आवश्यक है, कि-अनावश्यक ? सभी साधक उसी 'सय' शब्द का प्रयोग करते आये हैं। "किस स्थान पर 'सय' शब्द अधिक लिखा गया है ? भगवन्त को कैसे मालूम हुआ कि-यह 'सय' शब्द अनावश्यक है ?" मुनियों ने पूछा । प्रत्युत्तर में गुरु भगवंत ने कहा-मैं न संस्कृत का विद्वान् हूँ और न टीकाकार ही, किन्तु पूज्य श्री मन्नालाल जी, महाराज गुरुदेव श्री नन्दलालजी महाराज, पूज्य श्री खूबचन्द जी महाराज की कृपा का सुफल है कि-प्रारंभ से ही आगमों के प्रति मेरी अधिक रुचि रही है। इसलिए महामनस्वियों से मैंने आगमों की धारणा तर्क की कसौटी पर कस कर की है। हाँ, तो उस अधिक लिखे गये शब्द की चर्चा चल रही है। समवायांग सूत्र में जहाँ कि विजय राजधानी का वर्णन चलता है। भौगोलिक दृष्टि से उस राजधानी की लम्बाई-चौड़ाई १२ हजार योजन की है। जैसे "द्वादस सहस्साणं" परन्तु पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा ‘सय' शब्द अधिक लिखा गया प्रतीत होता है। इसीलिए "द्वादस सय सहस्साणं" अब मूल पाठ ऐसा मिल रहा है। "सय शब्द अधिक लिखा गया है। यह कैसे माना जाय ?" मुनियों ने फिर जिज्ञासा प्रगट की। समाधान के तौर पर महाराज श्री ने अपना वक्तव्य चालू रखा-“जीवाभिगम सूत्र में उस विजय राजधानी का सर्वांगी वर्णन है। वहां मूलपाठ "द्वादस सहस्साणं" अर्थात् विजय राजधानी १२ हजार योजन की है। इस कारण 'सय' शब्द अनावश्यक है । अत: उस शब्द का संशोधन होना चाहिए।" "अंग और उपांग के मूल पाठों के अक्षरावलियों का हेर-फेर करना, क्या"पयहीणं" नामक ज्ञानातिचार नहीं लगता है ? इस प्रकार जब चाहे तब मूल पाठों का परिवर्तन करने पर क्या आगमों की प्रमाणिकता पर आंच नहीं आयेगी ?" करबद्ध मुनियों ने पूछा। संतो! छद्मस्थ आचार्यों द्वारा यदा-कदा न्यूनाधिक लिखा जा सकता है । गल्तियों का परिष्कार करना दोष नहीं, दोष है सही शब्दों का, और सही भावों पर पर्दा डाल कर अपने विचारों को ठूसना और विपरीत भाव-भाषा को सामने रखना। . समन्वय के सन्दर्भ में 5 "काव्य सेवा विनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।" अर्थात् विद्वानों का समय तत्व चिंतन एवं धर्मगोष्ठी में बीतता है। तदनुसार एकदा शान्त स्वच्छ वातावरण के समय ज्योतिष-सम्बन्धी चर्चा करते हुए सानुनयपूर्वक मुनियों ने पूछा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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