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________________ प्रेरक प्रसंग व्यक्तित्त्व की प्रतिमा | 61 वि० सं० २०१० के दिनों में सहविहारी कुछ मुनियों के साथ ग्रामानुग्राम सद्बोध प्रदान करते हुए पूज्य गुरुदेव श्री कस्तूरचन्द जी महाराज का अहमदाबाद (गुजरात) नगर में पदार्पण हुआ। महाराज श्री का सरल एवं मधुर व्यक्तित्व प्रत्येक भक्त के लिए सुख-शान्ति का केन्द्र रहा है। यही कारण है कि-दिन पर्यंत आपके कल्याणकारी कदमों में दर्शनार्थियों का स्नेह मिलन जुड़ा रहता है। भले मारवाड़ी-गुजराती-पंजाबी हो और भले ही मन्दिरमार्गी या स्थानकवासी कोई भी हो। सश्रद्धा सभी आपकी पर्युपासना में तल्लीन रहते हैं।। ___“संत मिलन सम सुख जग नाहीं" के अनुसार सद्भावनापूर्वक महाराज श्री वहाँ विराजित दरियापुर सम्प्रदाय के आचार्य प्रवर श्री ईश्वर लाल जी महाराज के दर्शनार्थ पहुँचे। पारस्परिक वार्तालाप के अन्तर्गत आचार्य श्री ने फरमाया कि-मैंने सुना है आप (श्री कस्तूरचन्द जी महाराज) आगमज्ञान में काफी मर्मज्ञ एवं ज्योतिष ज्ञान में निष्णात हैं। मुझे भी कुछ ज्योतिष के विषय में पूछना है। यथा अवसर...."। इतने में एक भाई कुछ प्रश्न लेकर समाधान की खोज में वहाँ उपस्थित होकर बोला "आचार्य देव ! मुझे कुछ प्रश्न पूछना है । आज्ञा हो तो पून।" आचार्य महाराज ने गुरुदेव को आदेश दिया कि इस भाई के प्रश्न का समुचित समाधान करें। तब गुरुदेव आचार्य देव के आदेश को शिरोधार्य कर आगन्तुक भाई से बोले-“बोलो भाई तुम्हारे प्रश्न क्या हैं ?" “मत्थेणं वंदामि।" जैन एवं वैदिक दर्शनों में ८४ लाख जीवा योनि की संख्या मानी गई है। वैदिक धर्म में मुझे सविस्तार इस राशि का विशद वर्णन कहीं नहीं मिला। जैन सिद्धान्तों में हो तो आप मुझे समझाने की कृपा करें। किस दृष्टि से ८४ लाख जीवायोनि का मेल मिलाया गया है ? यह मैं जानना चाहता हूँ। इस प्रकार उस प्रश्नकर्ता ने अपने भाव सामने रखे। समाधान के तौर पर गुरु प्रवर ने फरमाया कि-सविस्तार जैन दर्शन में ८४ लाख जीवायोनि का वर्णन मिलता है। वह इस प्रकार है-सुनिये, जिसकी जितनी लाख जातियां हैं, उसका मूल आधा-सेंकड़ा ग्रहण करना चाहिए। उसके बाद पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस, आठ स्पर्श और पाँच संस्थान इस प्रकार अलग-अलग गुना करने से चौरासी लाख जीवायोनि का हिसाब ठीक मिल जाता है । जैसे काली मिट्टी के मूल भेद ३५० नीली मिट्टी के मूल भेद ३५० लाल मिट्टी के मूल भेद ३५० पीली मिट्टी के मूल भेद ३५० श्वेत मिट्टी के मूल भेद ३५० १७५० भेद हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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