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________________ ३२४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ पर आधारित है। जीवों में ऊँच-नीच का भेद नहीं। सभी जीव समान हैं, किसी भी जीव की हिंसा करना पाप है । जैनियों पर यह आक्षेप है कि वे जीव-जन्तुओं की तो रक्षा करते हैं, पर मनुष्य की ओर ध्यान नहीं देते पर सच यह है कि मनुष्य की उपेक्षा कर जीव-जन्तुओं की रक्षा नहीं होती । अहिंसा की भूमिका है-सभी जीव सुख से जीना चाहते है, कोई मरना नहीं चाहता, दुःख किसी को अच्छा नहीं लगता । दूसरे हम अपने प्रति जिस तरह के व्यवहार की आशा रखते हैं, वैसा व्यवहार हम दूसरों के प्रति करें। हिंसा से हिंसा पैदा होती है। इसलिए उससे बचा जाय पर प्रकृति में 'जीवो जीवस्य जीवनम्' का क्रम है। शरीर की प्रत्येक क्रिया में हिंसा अपरिहार्य है। यह कम से कम की जाय क्योंकि अहिंसा आत्मा का गुण है अहिंसा के पालन का प्रयत्न होना चाहिए । हिंसा कम से कम हो यह कोशिश रहे । यदि शरीर की प्रत्येक क्रिया विवेकपूर्वक यतना के साथ करें तो बाह्य हिंसा के पाप से बचा जा सकता है । हिंसा मात्र बाह्य क्रिया नहीं है । उसका स्थान मन में है, भाव में है। मनुष्य सतत जाग्रत रहकर अप्रमत्त भाव से कर्म करे तो बाह्य हिंसा का परिमार्जन हो सकता है। जब जीवन में समता आवे तभी अहिंसा का ठीक से पालन हो सकता है। जो समदर्शी है उससे पाप नहीं होता। पर इन पांचों महाव्रतों का पालन सभी समान रूप से नहीं कर सकते । इसलिये श्रावकों को अणुव्रत और साधु मुनियों के लिये महाव्रत कहे गये हैं। श्रावक स्थूलप्राणातिपातविरमण करता है जिसमें अपराधी को दण्ड देना और जीवन निर्वाह के लिये सूक्ष्म हिंसा, जो अनिवार्य है, कर सकता है। वह निरपराध प्राणियों की हिंसा नहीं करता। वह पूरी सावधानी रखता है कि किसी के प्रति अन्याय न हो, किसी को कष्ट न हो, फिर भी हिंसा हो जाती हो तो वह क्षम्य है। अहिंसा के पालन के लिये विचारों की निमलता और व्यापकता आवश्यक है। किसी के प्रति दुर्भावना भी नहीं रखी जा सकती। हिंसा की व्याख्या आचार्य उमास्वाति ने 'प्रमत्तयोगात प्राणाव्यरोपणं हिंसा' की है। मन, वचन, काया की प्रमादयुक्त अवस्था में होने वाली हिंसा ही हिंसा है। सत्य: सत्य को समी धर्मों ने धर्म का आधार माना है। जैनदर्शन ने भी सत्य को भगवान कहा है। सत्य ही ससार का सारभूत तत्व है। प्रमादरहित होकर हितकारी हो वही बोला जाय । क्योंकि सत्य के बिना कोई व्यवहार नहीं चलता। असत्य में हिंसा है। स्वयं अथवा दूसरों को आघात लगे ऐसी भाषा सत्य हो तो भी न बोली जाय । व्यावहारिक दृष्टि से भी निम्नलिखित प्रकार से सत्य के लिये सावधानी बरती जाय : (१) किसी पर झूठा आरोप न लगाया जाय । किसी के प्रति गलत धारणा पैदा न हो यह ध्यान में रखकर बोला जाय । (२) किसी की गुप्त बात प्रकट न करना । (३) पति-पत्नी की या घर के लोगों की गुप्त बात प्रकट न की जाय । (४) किसी को झूठ की प्रेरणा न दे। (५) झूठी लिखा-पढ़ी करना, झूठा सिक्का चलाना, आदि न किया जाय । अदत्तादान : किसी की वस्तु बिना मालिक की जानकारी के न ली जाय । चोरी न करना इतना ही नहीं पर चोरी की चीज खरीदना, या दूसरे से चोरी करवाना भी पाप ही है। राज्य के नियमों का उल्लंघन करके कर न देना, अवैधानिक व्यापार, राज्य के नियमों के विरुद्ध निषिद्ध वस्तुओं का एक स्थान से दूसरी जगह पहुँचाना, नाप-तोल में कम या अधिक दे-लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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