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________________ जैनदर्शन में आचार ३२५ सब अप्रामाणिक व्यवहार करना, दूसरे के अज्ञान का स्वार्थ के लिये लाभ उठाना, मिलावट आदि सब अदत्तादान में दोष है, जिनसे बचना चाहिए। ब्रह्मचर्य सब प्रकार के कामभोगों का त्याग और संयम। पर गृहस्थों के लिये स्वदारसन्तोष की मर्यादा रखी गयी है जिसका पालन सामाजिक दृष्टि से भी हितकर है। स्वयं और दूसरे के लिये हितकारी है। अपरिग्रह परिग्रह को पाप का मूल माना है। परिग्रह ही अहिंसावत के पालन में सबसे बड़ी बाधा है। परिग्रह से विषमता बढ़ती है। आज की अशांति और संघर्ष का मूल ही संग्रह है । परिग्रह से छल, कपट और अनाचार पैदा होता है। कामभोग और परिग्रह के लिये हिंसा और असत्याचरण किया जाता है । इसलिये परिग्रह परिमाण या उचित परिग्रह को अपनाना चाहिए। संग्रह पर सीमा बांध लेनी चाहिए । यही जीवन में सुख और शांति निर्माण करता है । तृष्णा से छुटकारा दिलाता है और दूसरों में सद्भाव निर्माण करता है। आज की विषम समस्याओं का समाधान परिग्रह परिमाण है। जिसे आज की भाषा में गांधीजी ने ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त कहा है। तीन गुणवत इन सब व्रतों का पालन तभी संभव है जब मनुष्य तीन गुणव्रतों को अपनावे वह सादगी अपनावे । भोग-उपभोग की वस्तुओं पर नियन्त्रण रखे। वस्तुओं के भोग पर ही नहीं उसकी सभी प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण हो। प्रवास भी इन दिनों इतना अधिक बढ़ गया है कि उस पर नियन्त्रण रखना अपने और दूसरों की दृष्टि से हितकर है। जिसे दिशा परिमाण व्रत तथा उपभोग परिभोगपरिमाण व्रत कहा है। तीसरा गुणवत है अनर्थदण्डविरमण व्रत अनावश्यक पाप पूर्ण प्रवृत्तियों से अपने आपको बचाना । निरर्थक बातें, आत्म-प्रशंसा या निष्प्रयोजन कोई भी काम करना, समय को बर्बाद करके मन में मलिनता आती है, शक्ति का व्यय होता है। शिक्षाव्रत निरर्थक व्यय होने वाली शक्ति और समय को शिक्षाक्तों के द्वारा आत्म-विकास में लगाया जाता है। जो चार हैं। (१) सामायिक सामायिक, समभाव की उपलब्धि के लिये सामायिक उत्तम उपाय है। जो हर रोज निश्चित समय करके की जाती है। उस समय में पूर्णरूप से समता रखी जाय, सभी प्रकार की दुष्प्रवत्तियों से अपने आपको दूर रखा जाय । सामायिक में यह ध्यान रखा जाय कि किसी प्रकार के मलिन विचार पैदा न हों, वाणी का दुरुपयोग न हो, कठोर या असत्य भाषण न हो, शरीर से कोई पापकारी प्रवृत्ति न हो। सामायिक प्रसन्न चित्त से और नियत समय तक करना आत्म-साधना में लाभदायक होता है। (२) देशावकाशिकव्रत इसमें दिशाओं के भ्रमण में मर्यादा बांध ली जाती है। इसमें आवागमन ही नहीं अपितु उपभोग-परिभोग के लिए वस्तुओं के उपयोग पर भी मर्यादा करनी होती है। स्वयं मर्यादित क्षेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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