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________________ जैनदर्शन में आचार ३२३ इस प्रकार आत्मा में कर्म का प्रवाह बहता रहता है, जिसे आस्रव कहा जाता है। इस चलने वाली प्रक्रिया से आत्मा को बंध होता है और उसके शुद्ध स्वरूप पर आवरण जमते जाते हैं। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि माना गया है। प्रत्येक जीव अनेक प्रकार के कर्म लेकर जन्म लेता है, जिनका उसके क्रिया-कलापों पर प्रभाव होता है। वह जो कर्म करता है उससे फिर नये कर्मों का बंध होता जाता है। यह सम्बन्ध अनादि काल से चला आरहा है। इससे मुक्ति हो सकती है, मुक्ति का मार्ग है। कर्म के प्रवाह को बदला जा सकता है, रोका भी जा सकता है। नये कर्म बंध को रोकने की क्रिया संवर है और संचित कर्मों का भी क्षय हो सकता है, उसे निर्जरा कहते हैं । संपूर्ण कर्म क्षय होने पर आत्मा स्वयं सिद्ध स्वरूप को प्राप्त हो सकता है। आत्मा से परमात्मा बनता है । दुःख से मुक्ति पाता है, यही मोक्ष है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष यह सात तत्त्व है। कई उनमें पुण्य और पाप को जोड़ते हैं। शुभ और अशुभ प्रवृत्ति के फलस्वरूप शुभ और अशुभ कर्म ही पुण्य और पाप होते हैं । इस प्रकार नव तत्त्व और षड्द्रव्य में पूरा जैनदर्शन आजाता है। जैनदर्शन बदिगम्य है और व्यावहारिक है। उसका रहस्यवाद समझ आ सकने जैसा है, गढ नहीं है। हर प्रबुद्ध व्यक्ति उसे समझ सकता है और उसमें बताई बातें जीवन में उतार सकता है। जीव वासनाओं, कामनाओं तथा कषायों के कारण अनेक प्रकार के बंध बांधता है। इस मनो-व्यापार को अन्तनिरीक्षण और विश्लेषण द्वारा देखा जा सकता है। ध्यान द्वारा देखा जा सकता है। ध्यान से चित्त की स्थिरता, निर्मलता आती है, अगला मार्ग स्पष्ट होता है। संवर और निर्जरा के लिए आचारधर्म की उपयोगिता है। जीवन साधना का आरम्भ है और अन्तिम साध्य दुःख विमुक्ति है। जनदर्शन की विशेषता कर्म सिद्धान्त है । जिसकी नींव पुरुषार्थ है। जो जैसा करेगा, वैसा पावेगा । अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं ही है। आत्मा ही कर्ता और मोक्ता है । जीव शिव हो सकता है, आत्मा परमात्मा बन सकता है, नर का नारायण हो सकता है। जैनदर्शन ईश्वर को कर्ता नहीं मानता, आत्मा ही शुद्ध-बुद्ध होकर परमात्म पद पा सकता है। परमात्म पद पाने का उपाय है, सम्यक्श्रद्धा, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । सही दृष्टि यानी जीव और पुद्गल की भिन्नता, देह आत्मा की पृथकता का भान । यह सम्यक दृष्टि ही जीव को चारित्र्य की ओर मोड़ती है। और सम्यक् चारित्र के मार्ग पर बढ़ने से सम्यकदर्शन पर अधिक निष्ठा बढ़ती है। रागदोष और अहंता-ममता की मंदता से सम्यकज्ञान की ओर रुचि बढ़ती है और सम्यकदर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों का साथ होता है तब जीव शिव बनता है, दुःख से मुक्त होकर अपना साध्य प्राप्त करता है। पदार्थ व वाह्य जगत् का ज्ञान ठीक से हो वह सम्यज्ञान है। सम्यकज्ञान होने के लिए उदार दृष्टिकोण होना आवश्यक है, इसलिए इस मार्ग में अनेकांत सहायक होता है। हर वस्तु के अनेक गुण और पर्याय हैं। वाणी में उन सभी का समावेश नहीं होता। स्वयं कहता है वही ठीक ऐसा आग्रह संघर्ष पैदा करता है । जहाँ भी सत्य हो उसका आदर करना अनेकांत है। अंश को पूर्ण मानने का आग्रह नहीं रखना-इसमें अन्तर की उदारता है। आचार में अहिंसा और विचार में अनेकांत में धर्म का सार आ जाता है। अहिंसा: जैनधर्म का आचारधर्म अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह से प्रारम्भ होता है तो भी उसमें अहिंसा की प्रधानता है । अहिंसा परमधर्म इसलिए है कि यह सभी जीवों की समानता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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