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________________ २४२ मुfear अभिनन्दन ग्रन्थ आर्य वज्र, तथा आर्यरक्षितसूरि के नाम गिनाये जा सकते हैं । आगम साहित्य को आरक्षितसूरि ने चार भागों में विभक्त करके जैनधर्म की दृष्टि से इस युग के ऐतिहासिक महत्व को और भी बढ़ा दिया है । आर्यरक्षितसूरि का आगम साहित्य का विभाजन' इस प्रकार है (१) करणचरणानुयोग (३) धर्मकथानुयोग (२) गणितानुयोग (४) द्रव्यानुयोग इसके साथ ही आचार्य आर्यरक्षितसूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र की भी रचना की जो जैनदर्शन का प्रतिपादक महत्त्वपूर्ण आगम माना जाता है । यह आगम आचार्य प्रवर की दिव्यतम दार्शनिक दृष्टि का परिचायक है | गुप्तकालीन मालवा में जैनधर्म - भारतीय इतिहास में गुप्तकाल स्वर्णयुग के नाम से चिर-परिचित है । यह युग सर्वांगीण विकास का था । गुप्त राजा वैष्णव धर्म के अनुयायी थे । चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम और स्कन्दगुप्त तीनों के सिक्कों पर 'परम भागवत' खुदा होना गुप्तों की उस धर्म में विशेष निष्ठा सूचित करता है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि अन्य धर्मों की स्थिति नगण्य थी अथवा कि राजा दूसरे धर्मों का आदर नहीं करते थे । गुप्त राजा सभी धर्मों को दृष्टि से देखते थे । इसका प्रमाण यह है कि इस काल में लगभग स्थिति में होने के प्रमाण उपलब्ध होते हैं । समान आदर की सभी धर्मों के अच्छी मालवा में जैनधर्म के लिये यह युग अपना विशेष महत्त्व रखता है, क्योंकि इसी युग में जैनधर्म से सम्बन्धित पुरातात्त्विक सामग्री मिलना प्रारम्भ होती है । इतिहास प्रसिद्ध नगर विदिशा के पास उदयगिरि की पहाड़ी में बीस गुफाएँ हैं, जो इसी युग की है। इनमें से क्रम से प्रथम एवं बीसवें नम्बर की गुफाएँ जैनधर्म से सम्बन्धित हैं । पहले नम्बर की गुफा में एक लेख खुदा हुआ है जिससे सिद्ध होता है कि यह गुफा गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल की है। बीसवें नम्बर की गुफा में भी एक पद्यात्मक लेख खुदा हुआ है जिसके अनुसार इस मूर्ति की प्रतिष्ठा गुप्त सम्वत् १०६ (ईस्वी सन् ४२६ कुमारगुप्त का काल ) में कार्तिक कृष्णा पंचमी को आचार्य भद्रान्वयी आचार्य गोशर्म मुनि के शिष्य शंकर द्वारा की गई थी । इस शंकर ने अपना जन्म स्थान उत्तर भारतवर्ती कुरुदेश बतलाया है ।" लेख का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है Jain Education International १ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ पृष्ठ ४५६ २ वही, पृष्ठ ४५६ ३ गुप्तकाल का सांस्कृतिक इतिहास, पृष्ठ ३२१ ४ भारतीय संस्कृति के जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ ३११ ५ वही, पृष्ठ ३११ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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