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________________ मालवा में जैनधर्म: ऐतिहासिक विकास २४३ "सिद्धों को नमस्कार ! श्री संयुक्त गुण समुद्रगुप्तान्वय के श्रेष्ठ राजाओं के वर्द्धमान राज्य शासन के १०६ वें वर्ष और कार्तिक महिने की कृष्णा पंचमी के दिन गुहाद्वार में विस्तृत सर्पफण से युक्त शत्रुओं को जीतने वाले जिनश्रेष्ठ पार्श्वनाथ जिनकी मूर्ति राम- दमवान शंकर ने बनवाई जो आचार्य भद्र के अन्वय का भूषण और आर्य कुलोत्पन्न गोशर्म मुनि का शिष्य तथा दूसरों द्वारा अजेय रिपुघ्न मानी अश्वपति भट्ट संघिल और पद्मावती के पुत्र शंकर इस नाम से लोक में विश्रुत तथा शास्त्रोक्त यतिमार्ग में स्थित था और वह उत्तर कुरुवों के सदृश उत्तर दिशा के श्रेष्ठ देश में उत्पन्न हुआ था, उसके इस पावन कार्य में जो पुण्य हुआ हो वह सब कर्मरूपी शत्रु समूह के क्षय के लिये हो ।" अभिलेख में वर्णित आचार्य भद्र और उनके अन्वय के प्रसिद्ध मुनि गोशर्म के विषय में अभी कुछ भी ज्ञात नहीं है फिर भी इतना इनके विषय में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ये युगप्रधान आचार्य थे । - इस युग की जैनधर्म सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि अभी हाल में ही हुई है । प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी ने अपने एक लेख " राम गुप्त के शिलालेखों की प्राप्ति में विदिशा के समीप बेसनदी के तटवर्ती एक टीले की खुदाई करते समय प्राप्त गुप्तकालीन जैन तीर्थंकरों की दुर्लभ तीन प्रतिमाओं पर प्रकाश डाला है । ये तीनों प्रतिमाएँ बलुए पत्थर की बनी हैं। इन तीनों प्रतिमाओं की चरण चौकियों पर गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि तथा संस्कृत भाषा में लेख उत्कीर्ण थे। एक मूर्ति का लेख तो पूर्णतः नष्ट हो चुका है । दूसरी मूर्ति का लेख आधा बचा है और तीसरी मूर्ति का लेख पूरा सुरक्षित है । इसके आधार पर प्रो० वाजपेयी ने गुप्तकालीन एक विवादास्पद समस्या पर नवीन प्रकाश डाला है । समस्या गुप्तनरेश रामगुप्त की ऐतिहासिकता की है । इस नरेश का उल्लेख साहित्य में तो मिलता है तथा इसके ताँबे के सिक्के भी बड़ी संख्या में उपलब्ध होते हैं । स्वयं प्रो० वाजपेयी ने इस नरेश के सिक्कों पर विस्तार से प्रकाश डाला है, किन्तु अभी तक कोई भी ऐसा अभिलेख प्राप्त नहीं था जिसमें कि रामगुप्त को गुप्तनरेश के रूप में वर्णित किया गया हो। इन मूर्तियों के अभिलेखों के आधार पर इन मूर्तियों का निर्माण “महाराजाधिराज श्री रामगुप्त के शासनकाल " में हुआ। इन प्रतिमाओं के सम्बन्ध में प्रो० वाजपेयी ने लिखा है कि एक प्रतिमा पर आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का और दूसरी पर नवें तीर्थंकर पुष्पदन्त का नाम लिखा है । मूर्तियों की निर्माण शैली ईस्वी चौथी शती के अंतिम चतुर्थांश की कही जा सकती है । इन मूर्तियों में कुषाणकालीन तथा ईस्वी पांचवीं शती की गुप्तकालीन मूर्तिकला के बीच के युग के लक्षण दृष्टव्य है । मथुरा आदि से प्राप्त कुषाणकालीन बौद्ध और तीर्थंकर प्रतिमाओं की चरण चौकियों पर सिंहों जैसा अंकन प्राप्त होता है वैसा इन मूर्तियों पर लक्षित है । प्रतिमाओं का अंग विन्यास तथा सिरों के पीछे अवशिष्ट १ साप्ताहिक हिन्दुस्तान १६६६, मार्च ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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