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________________ मालवा में जैनधर्म : ऐतिहासिक विकास २४१ अशोक की मृत्यु के उपरान्त मौर्य साम्राज्य दो भागों में बँट गया था। पूर्वी राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी और वहाँ दशरथ राज कर रहा था। पश्चिमी राज्य की राजधानी उज्जयिनी थी और वहाँ सम्प्रति का राज्य था । सम्प्रति का जैन साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान है । जैन अनुश्रुति के अनुसार सम्राट् सम्प्रति जैनधर्म का अनुयायी था और उसने अपने प्रियधर्म को फैलाने के लिये बहुत प्रयत्न किया था। परिशिष्ट पर्व में लिखा है कि रात्रि के समय सम्प्रति को यह विचार उत्पन्न हुआ कि अनार्य देशों में भी जैनधर्म का प्रचार हो और जनसाधु स्वछन्द रीति से विचर सकें। इसके लिये उसने इन देशों में जनसाधुओं को धर्म प्रचार के लिये भेजा। साधुओं ने राजकीय प्रभाव से शीघ्र ही जनता को जैनधर्म और आचार का अनुगामी बना लिया। इस कार्य के लिये सम्प्रति ने अनेक लोकोपकारी कार्य भी किये। गरीबों को भोजन बाँटने के लिये अनेक दानशालाएँ खुलवाईं। अनेक जैन ग्रन्थों में लिखा है कि धर्मप्रचार के लिये सम्प्रति ने अपनी सेना के योद्धाओं को साधुओं का वेश बनाकर प्रचार के लिये भेजा था। इस युग के उल्लेखनीय आचार्यों में आचार्य भद्रबाहु एवं आर्य सुहस्तिसूरि का नाम लिया जा सकता है । भद्रबाहु द्वारा रचित आगमिक साहित्य इस युग की विशेष देन है। शक कुषाण युगीन मालवा में जैनधर्म-इस समय भी मालवा में जैनधर्म पर्याप्त उन्नतावस्था में था। इसका आभास हमें आचार्य कालक के कथानक से मिलता है। आचार्य कालक ने शकों को अवंती पर आक्रमण करने के लिये आमंत्रित किया था जिसका एकमात्र कारण यह था कि अवंतीनरेश गर्दभिल्ल ने आचार्य कालक की भगिनी जैनसाध्वी सरस्वती का बलात् अपहरण कर लिया था। सभी प्रयत्नों के बावजूद जब गर्दभिल्ल ने सरस्वती को मुक्त नहीं किया तो बाध्य होकर आचार्य कालक ने शकों को आमंत्रित किया कि वे गर्दभिल्ल के दर्प को चूर्ण कर दे। युद्धोपरांत मालवा में शकों का राज्य स्थापित हो गया था। इस घटना में जनता का भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कालकाचार्य को सहयोग रहा ही होगा। इससे यह भी सिद्ध होता है कि इस काल में जैनधर्म की स्थिति उत्तम रही होगी। क्षपणक विक्रम के नवरत्नों में से एक थे। इनके रचे हुए न्यायावतार, दर्शनशुद्धि, सन्मतितर्कसूत्र, और प्रमेयरत्नकोष नामक चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इस युग में अनेक युगप्रधान आचार्य भी हो चुके हैं जिनमें भद्रगुप्ताचार्य, १ Asoka : V. A. Smith, page 70. २ मौर्य साम्राज्य का इतिहास, पृष्ठ ६५३ ३ (क) The Age of Imperial Unity, page 418 (ख) मौर्य साम्राज्य का इतिहास, पृष्ठ ६४८-४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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