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________________ प्राचीन भारतीय मूर्तिकला को मालवा की देन २२३ उत्तरी द्वार तोरण की ऊपर की बड़ेरी पर दोनों ओर यक्ष एवं सपक्ष सिंह अंकित हैं। नीचली बड़ेरी पर सर्वोत्तम अंकन हुआ है। यहां नगरीय वास्तु, वेश, आभरण तथा अश्वयुक्त रथ एवं बांए स्तम्भ पर जेतवन का दृश्य भरहुत के समान अंकित है। प्रसेनजित, पानगोष्ठी, वीणावादन इत्यादि भी अंकित हैं । स्तम्भ के बाहरी भाग पर अंकित सुवर्णयष्टि पर चार खूटियों पर झूलती सुवर्णमालाएं आकर्षक रूप में व्यक्त हुई हैं। यहाँ बौद्ध एवं लोक धर्म का अद्भुत समन्वय हुआ है। पूर्वी द्वार के तोरण के उत्कीर्णन में तरलता की अधिकता है। बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण तथा नगर की परिखा, प्राकार एवं द्वार प्रदर्शित हैं। दाहिने स्तम्भ भाग के सामने विविध लोक उत्कीर्ण हुए हैं। इस पर महाकपि जातक भी सफलता से अंकित हुआ है। उत्तरकुरु के स्वर्गीय आनन्दमय जीवन का भी वहाँ पर्याप्त अंकन हुआ है। दक्षिण तथा पश्चिमी द्वारों की कला ने परवर्ती माथुरी कुषाण शैली को प्रथापित किया है। दक्षिण द्वार का निर्माण विदिशा के गजदन्त-कलाकारों ने किया था तथा उनकी ही बारीक कला उस पर अंकित हुई है। इसके निर्माण में उज्जयिनी के श्रेष्ठ वर्ग का भी योगदान रहा।। द्वितीय स्तूप की वेदिका पर अनेक दृश्य अंकित हैं। यक्ष-यक्षी, अश्वमच्छ, किन्नरमिथुन तथा सर्वाधिक कमल शोभित हैं। ये ईसवी पूर्व दूसरी सदी के अन्त में निर्मित हुए हैं। यहाँ एक मनोरम अंकन में कमलवल्लरी प्रदर्शित है जिसमें दो गजों द्वारा घटाभिषेक की जाती हुई लक्ष्मी, नीचे यक्षमिथुन जिनमें से यक्ष के हाथ में पद्मप्रदर्शित है जो स्वभावतः उसकी चरम ऋद्धि का प्रतीक है। ये दोनों कमल-पत्र पर खड़े हैं जो उनके जलप्रेम को प्रकट करता है। नीचे अगले दोनों पैर उठाए सिंह, और भी नीचे वैसे ही दो अश्व तथा सबसे नीचे कच्छप है जिसके मुख से लहराती निकली कमल लता में उपर्युक्त दृश्य क्रमशः अंकित हैं। यहां कमल का अनन्त रूप में अंकन हुआ है। उत्तरकुरु का अंकन यहाँ भी हुआ है। किनारों का भी मनहर अंकन है। यही किन्नर बाद में हमशीर्ष देवता बना जो विष्णु के अवतार के रूप में अचित हुआ। इन्हें अश्वमुखी यक्ष-यक्षी भी कहा जाता रहा। तृतीय स्तूप के द्वार पर यक्ष-यक्षिणी, अश्वारोही, त्रिरत्न, धर्मचक्र इत्यादि उत्कीर्ण हैं। विदिशा के निकट उदयगिरि पहाड़ी पर कनिंघम को कई मौर्य-शुंगयुगीन अवशेष प्राप्त हुए थे जिनमें से कई लुप्त हो गए तथा कई ग्वालियर संग्रहालय में सुरक्षित हैं। एक ८ फीट 6 इंच ऊँचा गोल स्तम्भ खण्ड मौर्ययुगीन ओपरहित होने पर भी अशोक के कई अन्य स्तम्भों से आकृति में मिलता है तथा पाषाण भी वही । ३ डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, भारतीय कला, पृ० २०५ ४ द्विवेदी बन्धु, मध्य भारत का इतिहास, भाग १, पृ० ३२८-२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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