SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ कमलाकृति अर्धभग्न, रस्सी का कण्ठा, ऊपर सादी पट्टी, तब गोल चौकी, जिसके चारों ओर बैल, हाथी, सपक्ष ऊँट, सपक्ष अश्व, जिराफ, दाढ़ीयुक्त मानवमुख, सपक्ष सिंह इत्यादि उभरे हैं । लुहाँगी पहाड़ी से प्राप्त स्तम्भ शीर्ष भी ओपरहित होने पर भी मौर्य युगीन ही माना गया है । इसका शीर्ष रमपुरवा के स्तम्भशीर्ष के समान अलंकृत है तथा उस पर दो सिंह एवं दो हाथी एक के बाद एक बैठे थे जिनके अब केवल पैर बचे हैं । उज्जयिनी में गढ़ के उत्खनन में प्राप्त स्लेट पत्थर पर उत्कीर्ण मूर्ति मौर्ययुगीन कला का श्रेष्ठ उदाहरण है । साँची के दक्षिण में लगभग १२ फीट लम्बे विशालकाय अश्व एवं उसके निकट एक नाग राजा की भव्य मूर्ति है । इसके हाथ तथा मुख खण्डित हैं । निकट ही फिरोजपुर ग्राम में नाग राजा तथा रानी की मानवाकार मूर्तियाँ पड़ी हैं। ऐसी अनेक मूर्तियाँ हैं जो आकर्षक हैं । द्विवेदीबन्धु के अनुसार ये मूर्तियाँ तीसरी सदी में निर्मित हुई प्रतीत होती हैं । विदिशा के प्रासादोत्तम विष्णु मन्दिर के अवशेषों के निकट से पूर्व गुप्तकालीन विष्णु की भग्न प्रतिमा प्राप्त हुई है । बायें हाथ में सिंहमुखी गदा है । प्रभामण्डल भी है । बेसनगर से स्तम्भ शीर्ष भी उपलब्ध होता है जो मकरांकित है। मकरध्वज अथवा मकरकेतन के मन्दिर के उल्लेख उज्जयिनी तथा पाटलिपुत्र के सन्दर्भ में भी प्राप्त होते हैं । fift की वीणागुहा में शिवलिंग पर उभरी शिवमुख प्रतिमा गुप्तकाल से पहले की है । क्योंकि इसमें केवल तृतीय नेत्र ही प्रदर्शित है अन्य चन्द्रकला इत्यादि रूढ़ि प्रदर्शित नहीं है जो गुप्तकालीन खोह तथा भूमरा के एकमुख शिवलिंगों में प्राप्त होती है । इस प्रतिमा की सौम्य मुद्रा हृदयाकर्षक है। सिर पर जटा जूड़े के रूप में बँधी है तथा कुछ केश गले तक झूल रहे हैं । गले में मणियों का कण्ठा भी है । कालिदास ने जिस अष्टमुख शिव की अर्चना की है, उसकी अकेली मूर्ति दशपुर ( मन्दसौर) से प्राप्त हुई है । ७-८ फीट ऊँचे शिवलिंग पर चार मुख ऊपर तथा चार उनके नीचे त्रिनेत्रमय उत्कीर्ण हैं । मुख अण्डाकार एवं सौम्य हैं । बाघ-गुहाओं के द्वार के आसपास बोधिसत्व, कुबेर, यक्ष, द्वारपाल इत्यादि की विशाल प्रतिमाएँ निर्मित हैं । ये तब की हैं जब बुद्ध प्रतिमा के लक्षण पूर्णतया निश्चित नहीं हुए थे । अर्थात् ये गुप्तकाल से पूर्व की ही प्रतीत होती हैं । गुप्त युग की कला में शील, शक्ति तथा सौन्दर्य का अद्भुत समन्वय है । अब आकृतियाँ सर्वथा स्वाभाविक हो गयीं । कलाकारों की छैनी ने जो सन्तुलन इस काल में प्रस्तुत किया वह न तो इससे पूर्व था और न बाद में रहा । अब मूर्तियाँ न तो शुंगकाल जैसी चपटी रहीं, न कुषाणकाल जैसी गोल, बल्कि गांधार शैली जैसी अंडाकार प्रकृत ५ विनोद बन्धु, मध्यभारत का इतिहास, भाग १, पृ० ४८२ ६ वही, पृ० ६२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy