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________________ २२२ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ वणिक्पथ पर स्थित होने से वहां वैश्यों की बस्ती थी जिसे वैश्य नगर (बेसनगर) कहते थे । व्यापारियों की बस्ती में धन के देवता कुबेर एवं यक्ष की व्यापक पूजाअर्चना अस्वाभाविक नहीं है। यही कारण है कि वहां इनकी महाकाय मूर्तियाँ पधरायी गयीं, इनके आयतन बने, ध्वजस्तम्भ बने, इन ध्वजस्तम्भों के शीर्षभाग पर विशाल एवं ऋद्धि प्रकट करते कल्पवृक्ष (वटवृक्ष) बने। वटवृक्ष पर यक्षों का वास होने से यहां के जनों की उस पर विशेष आस्था थी। पूर्वोक्त वटवृक्ष के नीचे शंख एवं पद्म भी अंकित हैं । कालिदास के मेघदूत (२०१७) में स्पष्ट संकेत है कि अलका में यक्ष के भवनद्वार के दोनों ओर शंख तथा पद्म का अंकन है. द्वारोपान्ते लिखितवपुषी शंखपद्मौ च दृष्ट्वा ।। ये शंख एवं पद्म चरम निधियों के प्रतीक हैं। कर्नाटक के प्राचीन मंदिरों के द्वार के दोनों ओर इनकी मानवी आकृतियाँ अब भी देखी जा सकती हैं। लक्ष्मीपति विष्णु के दो हाथों में शंख एवं पद्म का चित्रण भी निधिसम्पन्नता का द्योतन है । विदिशा में इन कल्पवृक्षों के अंकन के साथ ही विष्णु का आयतन एवं गरुड़ध्वज भी उच्छित था जिसकी वणिजों के नगर में स्थिति अचरज नहीं। कालिदास ने चैत्य का संकेत कर अपने युग के विदिशा की समूची सभ्यता का उल्लेख कर दिया है-कला, समाज, अर्थ, धर्म सब कुछ व्यक्त हो गया। सांची के सर्वाधिक महत्त्वशाली तीन स्तूपों में महास्तूप के चार तोरणद्वार अत्यन्त अलंकृत हैं । तृतीय स्तूप का एक तोरण है। इन तोरणों के सिरे पर, दो भारी स्तम्भों पर तीन-तीन धरणें हैं जिनके दोनों सिरे आवर्त से अलंकृत हैं। बीच में गजारोही तथा अश्वारोही हैं । यक्ष मूर्तियां तथा हाथी एवं सिंह के अग्रभाग हैं। उभयतः मुखीयक्षी, चामरग्राही यक्ष है। यहां बौद्धधर्म एवं लोकधर्म का समाहार हो गया है। कुछ ऐसा शिल्प है जिसकी पर्याप्त आवृति हुई एवं कुछ में बुद्ध की जीवन घटनाएं, यक्ष मूर्तियां, पशुपक्षी, लता-फूल-पत्तियां इत्यादि का अंकन हुआ है। पीपल अथवा अश्वत्थ के रूप में सम्बोधि का अंकन कर पूजा के मनहर दृश्य उत्कीर्ण कर दिए हैं। बड़ेरियों के बीच बौनी यक्ष-मूर्तियाँ अंकित हैं। यहां उकेरे गए पशु वास्तविक तथा काल्पनिक दोनों प्रकार के हैं। पशुओं में अज, वृषभ, उष्ट्र, गज, सिंह एवं सिंहव्याल हैं । पूर्वी द्वार पर उदीच्यवेषधारी शक-तुषार अंकित हैं। यहाँ सपक्ष सिंह भी अंकित हैं जो भारत के बाहर भी पर्याप्त उकेरे गये। यहाँ फूल-पत्तियों का पर्याप्त अलंकरण है, विशेषतः कमल का। दक्षिणी द्वार पर श्री लक्ष्मी का अंकन है जिसका दो गज घटाभिषेक कर रहे हैं। बीच की बड़ेरी पर स्तूप का दर्शन करने के लिए रथारूढ़ अशोक का अंकन हुआ है जिसके पीछे गजारोही एवं पदाति हैं। इसी द्वार के स्तम्भ की दूसरी बगड़ी पर अशोक द्वारा निर्मित, अश्वत्थ के चतुर्दिक बोधिधर प्रदर्शित हैं। परन्तु मुझाए बोधि को देख अशोक बेसुध बताये गये हैं। वीणा बजाती मिथुन मूर्ति भाजा के अनुरूप है। कल्पवृक्ष के नीचे मिथुन-नृत्य-दर्शन का आनन्द प्रदर्शित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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