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________________ सन्देश १४७ बनाने की लगन, आत्मोत्थान के साथ-साथ समग्र मानवता के उद्धार का दृढ़ संकल्प, उनकी अपराजेय विद्वत्ता का अभिनन्दन करके यदि समाज अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है तो मैं समाज की इस कर्तव्य-निष्ठा कामना का अभिनन्दन अवश्य करूँगा। 0 प्रवर्तक श्री हीरालालजी महाराज ___ साधु-शिरोमणि श्री हीरालालजी भी मेरे स्मृति कोष के एक अनुपम रत्न हैं । जब भीनासर-सम्मेलन के अवसर पर मैंने सुना कि आप कलकत्ता में चातुर्मास करके १३०० मील की सतत दुर्गम यात्रा करते हुए यहां पधारे हैं तो मेरा हृदय उनकी संघ-भक्ति के गौरवशाली रूप को देखकर उल्लसित हो उठा था। जयपुर में मैंने उनकी विद्वत्ता के विजयी स्वरूप के दर्शन किये थे। उनके शान्त स्वभाव को देखकर मुझे साहित्य श्रुत शान्त रस के मानो साकार दर्शन ही हो गए थे। सं० २००८ में मैंने उनके दर्शन लुधियाना में किये थे। उनकी प्रवचन-प्रभावना से पंजाब का जैन संघ ही नहीं साधु-सती-मण्डल भी प्रभावित हो उठा था। उनकी "निर्ममो निरहंकारः यतश्चित्तेन्द्रियक्रियः" के पावन मूर्ति आज भी पंजाब के लोग भूले नहीं हैं। कभी-कभी संयोग बड़े प्रबल हो उठते हैं । यह संयोग का प्राबल्य ही तो था कि उन्होंने जड़ चञ्चला लक्ष्मी से उदासीन होने के लिए पिता लक्ष्मीचन्दजी से विदाई ले ली और उन्हें मोक्ष-लक्ष्मी का उपहार देने वाले गुरु श्रद्धेय लक्ष्मीचन्दजी मिल गए। तब से वे निरन्तर मोक्ष लक्ष्मी के पावन मन्दिर की ओर निरन्तर बढ़ते चले जा रहे हैं। उन्होंने महर्षियों के "चरैवेति चरैवेति" मन्त्र का मनन करते हुए राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, पंजाब, आंध्र, कर्नाटक, तामिलनाडु अर्थात् आसेतुहिमाचल भारतीय धरा की गोद में खेलती मानवता को अपने प्रवचनामृत का पान कराकर अपनी स्व-परकल्याण साधना को पूर्ण किया है। आज ६९ वर्ष की अवस्था में भी वे अपने साधना-पथ पर बढ़ते हुए आत्म-शुद्धि के साथ-साथ लोकमानस को भी विशुद्ध बना रहे हैं । अत: लोकमानस को उनका अभिनन्दन करना चाहिये और वह कर रहा है यह सन्तोष का विषय है। __ मैं भी एक साधु हैं अतः विरक्ति ही मेरा सम्बल है। इसलिये मैं यह तो नहीं कह सकता कि मुनिद्वय से मेरा प्रेम है, अनुराग है, परन्तु यह अवश्य कह सकता हूँ कि उनका साधना-पथ मेरे लिये आदर्श है । आदर्श अनुकरणीय होता है, अतः सब साधु उनके साधना-मार्ग का अनुकरण करें। मेरी यही अभिलाषा मुनिद्वय का सादर अभिनन्दन करती है। -उपाध्याय श्रमण फूलचन्द २४-११-७६ : जैन स्थानक, लुधियाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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