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________________ १४६ संदेश मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ दो पूज्य विभूतियाँ D स्थविरवर उपाध्याय श्री कस्तूरचन्दजी महाराज मानव के पास जहाँ चेतना का अजस्र स्रोत है, वहाँ उसके पास जरा-मरण के वेग से मुक्त होने के अमोघ उपाय हैं । जहाँ उसके पास देवत्व की चरम ऊँचाइयों पर खिलने वाले फूलों को प्राप्त करने का स्वतन्त्र अधिकार है, वहाँ उसके पास स्मृति का ऐसा अद्भुत कोष भी है जिसमें उसने इसी जन्म के नहीं जन्म-जन्मान्तरों के परिचय पत्र एकत्र किए हुए हैं । सौभाग्य से मैं भी जैनत्व से मण्डित महिमाशालिनी मानवता को प्राप्त कर उस स्मृतिकोष को संजोए बैठा हूँ । मालवरत्न उपाध्याय श्री कस्तूरचन्दजी महाराज एवं जैनागम-तत्व - विशारद प्रवर्तक श्री हीरालालजी महाराज के सम्मानार्थ अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रस्तुतीकरण की चर्चा पढ़ते ही मेरे स्मृतिकोष में सुरक्षित दोनों महामानवों के पावन चित्र उभर कर मेरे सामने आगए । सन् १९६४ में अजमेर साधु-सम्मेलन के समय तथा सन् १६५६ के भीनासर साधु-सम्मेलन की पावनवेला में श्री कस्तूरचन्दजी महाराज का सान्निध्य मुझे प्राप्त हुआ । तेरह वर्ष पूर्व का दर्शन - सान्निध्य भी आज जैसा लग रहा है। उनके प्रौढ़ दार्शनिक चिन्तन, वाणी के मधुर एवं क्रान्ति विशिष्ट प्रवाह, साधना के प्रति अनन्य निष्ठा एवं विरक्त हृदय में समस्त - सन्त-समूह के प्रति सम्मान देखकर मैं उनके प्रति आकृष्ट ही नहीं हुआ, अपितु श्रद्धान्वित भी हो उठा । साधुत्व की समस्त सम्पत्तियाँ मानों उनके चारों ओर एकत्र होने में ही अपना गौरव समझ रही थीं । मैंने जो उनमें सर्वथा वैशिष्ट्य पाया वह था कि वे प्रत्येक समस्या की गहनतम जड़ों का स्पर्श करके उनके सर्वाङ्गीण रूप को जानकर सद्यः चिन्तनशीला प्रतिभा द्वारा उनके सुलझे समाधान प्रस्तुत कर देते थे । वे ज्योतिर्विद् के नाम से विख्यात हैं । ज्योतिर्विद् का प्रसिद्ध अर्थ तो ज्योतिष शास्त्र का वेत्ता ही होता है । हो सकता है उन्होंने इस शास्त्र की गहनतम गहराइयों में गोते लगाए हों, परन्तु साधुता की समतल पावन भूमि पर ज्योतिष शास्त्र की वनस्पतियाँ अपने सौन्दर्य का पूर्ण विकास नहीं कर पाती हैं, क्योंकि साधु के लिये उसकी उपयोगिता नगण्य सी होती है । परन्तु मेरी दृष्टि में श्री कस्तूरचन्दजी महाराज सच्चे अर्थों में ज्योतिर्विद हैं, क्योंकि आत्म-साधना के विशाल गगन में चमचमाते ज्योतिस्वरूप 'आत्मा' को वे भली प्रकार जानते हैं, उसके स्वरूप को समझते हैं, वे साधना सम्पन्न ज्योतिर्विद् हैं - यही मेरी धारणा है । Jain Education International श्री कस्तूरचन्दजी में संयम, साधना, साधुत्व समता आदि जब हम अनेक खूबियाँ देखते हैं तो कभी-कभी आश्चर्यान्वित हो उठते हैं, परन्तु मेरा मन आश्चर्यचकित नहीं होता, क्योंकि मुझे ज्ञात है कि उनके दीक्षागुरु श्री खूबचन्दजी महाराज इन समस्त खूबियों के अक्षय भण्डार थे । आज ८४ वर्ष की अवस्था में भी उनकी जैन-शासन को गौरवशाली For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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