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________________ १४८ संदेश मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ महाप्रतापी पयस्विनी भूमि तू धन्य है ! संसार सागर की अनन्त गहराइयों में सीप भी मिलती हैं तो मोती भी मिलते हैं । सीप का महत्व नगण्य सा है, मोती का महत्व महत्वपूर्ण व महार्घ है। मोती में स्थित पानी का मूल्य होता है। इसी प्रकार संसार में अनेकों प्राणियों का प्रादुर्भाव होता है, जन्मते हैं, मरते हैं, अनेक प्रकार के खेल रचकर ज्यों आये त्यों हो चले जाते हैं, पर उन्हें कोई स्मरण नहीं करता, न कोई माला ही फेरता है किन्तु जो यहाँ आकर कर्मों की शुभ ज्योत्स्ना को विकसित करता है। सदाचरणों से, मधुरवाणी से व मधुर व्यवहार से जग को आलोकित करता है उसी का इस धरातल पर अवतीर्ण होना सार्थक है "स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्" संसार में उसी प्राणी का आना सार्थक है जिससे वंशकुल गौरव की अभिवृद्धि हो। परम श्रद्धय, ज्ञान गरिमा से सम्पन्न गुणाकर, जनमानस के तरलतमभावों को पैनी सूक्ष्मग्राहिणी दृष्टि से निरीक्षक, शास्त्रभावों के पारंगत, मनीषी, ज्योतिर्विद्या पारंगत मालवरत्न स्थविर पद विभूषित श्री कस्तूरचन्दजी महाराज की मैं किन शब्दों से संस्तुति करूं चूंकि पृथ्वी का कागज करू', कलम करूं वनराय । समुद्र की स्याही करू, तो भी गुण कहा न जाय ॥ भारतवर्ष महापुरुषों सन्तपुरुषों की प्रसविनी भूमि है। रणवीरों युद्धवीरों की युद्धभूमि है, विचारक मनीषियों की विचारभूमि है तो त्यागियों की त्यागभूमि है । यहाँ पर अनेक नररत्न, देशरत्न, समाजरत्न, युद्धरत्न अवतीर्ण हुए हैं। जिन्होंने अपने उज्ज्वल पवित्र क्रियाकलापों से स्नेह तरल सरल भूमि को अपना कर जनमानस को आल्हादित एवं आप्लावित किया है। ___'मालव मां का पेट है' की कहावत उसकी शस्य श्यामला जल वृक्षों की परिपूर्णता का बोध कराती है। उसी के अंग जावरा अपने नबावी शाही शान-शौकत का दर्शक एक मध्यमाकार शहर है। माता-पिता के लाड़प्यार से पालित, स्नेहरस से सिञ्चित युगल बन्धु संसार सागर के किनारे की प्राप्ति की राह देख रहे थे । मार्ग सामने था पर मार्गदर्शक की प्रतीक्षा थी। वैराग्य अपने पूर्ण सुरभित सद्गुणों के साथ आकर उनके हृदय मंदिर में प्रवेश कर रहा था। कुमति अपनी तीव्र दृष्टि से वैराग्य को हटाने के लिए पूर्ण तयारी के साथ आयी थी पर प्रशमन भावों की दृढ़ता से कुमति परवश हो गई थी। संयमभावों की दृढ़ता उनके हृदय मन्दिर पर अंकित होगई थी। अपने समय के ख्याति प्राप्त अथाह ज्ञान गरिमाशील कविकुल भूषण शास्त्रपारंगत श्री खूबचन्दजी महाराज साहब विचरण करते हुए जावरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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